महात्मा गाँधी को आज कैसे याद करें?

 गाँधी जयंती 2018 का लेख


भारत में दो ही महात्मा मशहूर हुए। एक
, महात्मा बुद्ध और दूसरे महात्मा गाँधी। कोई तीसरा महात्मा दिमाग़ पर ज़ोर डालने पर ही याद आएगा। लेकिन, इतना ज़ोर डालने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी, थ्री इडियट्स में वीरू सहस्त्रबुद्धे ने कहा था नो वन एवर रिमेंम्बर्स हू कम्स सेकेंड। पता नहीं ये कितना सच है। मैं तो आख़िरी व्यक्ति को याद किए जाने के विचार का समर्थक हूँ क्योंकि हर एक ज़िंदगी ज़रूरी है, अहम है।

महात्मा गाँधी भी महात्मा बनने के बाद कुछ-कुछ ऐसा ही सोचते थे। मैं, हालाँकि, महात्मा बनने की राह पर नहीं हूँ। लेकिन, उन्हीं लोगों के बारे में, उन्हीं लोगों को पढ़ने के दौरान मुझे ये ख़्याल आया होगा कि आख़िरी व्यक्ति भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि पहला। क़ायदे से तो पहला और आख़िरी में कोई भेद होना ही नहीं चाहिए।

याद है? महाभारत काल में जब कंस को पता चला था कि देवकी का आठवाँ पुत्र उसका वध करेगा तो वो इस इंतज़ार में रहने लगा कि कब देवकी के आठवाँ पुत्र हो और वो उसका क़त्ल करे। तो, वह पहले पुत्र के जन्म के बाद बिल्कुल भी परेशान नहीं था क्योंकि उसे आठवेँ का इंतज़ार था। फिर किसी ने उसे एक वृत्त बनाकर उसकी परीधि पर आठ बिंदुएं डालकर दिखाया और पूछा कि बताओ पहला बिंदू कौन-सा है। कंस की समझ में बात आ गई कि समय पहले और आख़िरी का निर्धारण नहीं करता है क्योंकि उसका फलक बहुत विशाल है।

लेकिन, इस विशालता का ही कुछ लोग हवाला देकर पहला और बाक़ी का निर्णय करते हैं। हमारे देश में तो राष्ट्रपति को पहला नागरिक भी माना जाता है। औपचारिक रूप से एक वरीयताक्रम भी जारी किया गया है जिसमें हमारे-आपके जैसे आम नागरिकों का तो नंबर भी नहीं आता है। हम इसीलिए शायद चुनावों में प्रतिनिधि नहीं वीआईपी चुनते हैं।

क़रीब 8-9 साल की उम्र तक मुझे वीआईपी का मतलब या तो पता नहीं था या एक ही मतलब पता था वेरी इंपॉर्टेंट पर्सन, अति महत्वपूर्ण व्यक्ति। लेकिन अपने पैतृक गाँव के एक दौरे पर मेरे एक चाचा, जो संयोग से किसी सरकारी स्कूल में पढ़ाते भी थे, ने वीआईपी का एक दूसरा मतलब बताया, जो शायद उनके अनुभव से मिला होगा वेरी इडियट पर्सन, अति बेहूदा व्यक्ति।

कई लोग जाने-अनजाने वीआईपी के दूसरे अर्थ को जीते हैं। सड़कों पर, बसों में, ट्रेनों में, हवाई जहाज़ में भी, मेट्रो में, संसद, विधान सभा और टीवी स्टूडियो, न्यूज़रूम वग़ैरह में दिखते हैं। और, अक्सर बिकते हैं। कई बार वीआईपी दर्ज़ा की ख़रीद-बिक्री का मामला भी सामने आता है। सब जानते हैं। हर बात को लिखकर दस्तावेज़ के तौर पर सहेजने की ज़रूरत नहीं है। होती भी नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए। हर पीढ़ी अपने समय के हिसाब से अपना वीआईपी कल्चर कल्चर (ग़लती से दो बार नहीं लिखा है) कर लेती है।

गाँधी शायद महात्मा इसी बात से बन गए कि उन्होंने समझ लिया था कि वीआईपी सही संकल्पना, अवधारणा नहीं है। अंतिम व्यक्ति ही असली व्यक्ति है। गाँधी में ये बदलाव धीरे-धीरे आया। और, अपनी पूरी ज़िदगी जीने के बाद भी बदलाव की लकीर पूरी नहीं पाए। इस पर एक लाइन बाद में लिखूँगा। पहले ये बात कि महात्मा बनने से पहले जब गाँधी महज मोहनदास करमचंद थे (यानी पिता की दीवानी की ख़ुमारी में थे) तो अफ्रीका में काले अफ़्रीकियों के साथ वही कर रहे थे जो भारत में अंग्रेज़ भारतीयों के साथ कर रहे थे।

मोहनदास ने अफ़्रीका के काले लोगों को हब्शी समझा, माना और कहा था। उन्हें अनसिविलाइज़्ड बताया था। भारतीयों को उनसे बेहतर, श्रेष्ठ घोषित किया था। एक लेखिका, जो अमरीका से भारत आकर जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टीवल (हिंदी में जो भी नाम हो इसका) में शामिल हुई, ने दावा किया कि मोहनदास ने अफ़्रीकी लोगों को काफ़िर बताया था। मुझे यक़ीन नहीं होता है कि मोहनदास की डिक्शनरी, जिसमें गुजराती और अंग्रेज़ी के शब्दों की भरमार रही होगी, में काफ़िर जैसा अरबी शब्द इतना हावी होगा कि अपना दुराव दिखाने के लिए इसका इस्तेमाल किया हो।

बहरहाल, मोहनदास चाहते थे कि अफ़्रीका की अंग्रेज़ी हुक़ूमत भारतीयों के साथ जिनमें ज़्यादातर गुजराती थे वैसा सलूक न करे जैसा काले अफ़्रीकियों के साथ किया जा रहा था। मोहनदास की दलील थी कि भारतीय सुसंस्कृत थे और मूल अफ़्रीकी असंस्कृत। मेरा ख़्याल है कि अभी तक मोहदनदास क़िताबों की दुनिया से बाहर नहीं निकले थे और कही-सुनी-पढ़ी बातों से ही दुनियादारी को परख रहे थे। उन्होंने अभी अनुभव और समझ की समझदारी से दुनिया को समझना, परखना शुरू नहीं किया था। इस दौरान, मोहनदास ट्रेन को भी बुरा मानते थे।

लेकिन, मोहनदास की क़िस्मत में महात्मा बनना बदा था सो लड़ाई मोल ले ली। ज़िद धर ली। और जब धर ली तो क़िताबें, कहावतें, सुविचार सब धरे के धरे रह गए। असली राजनीति समझ आई। जंग के पुराने क़ायदों में लगी ज़ंग दिख गई। समझ के पहिए ठोक-पीटकर सीधा किया और निकल पड़े।

ट्रेन को अभिशाप मानने वाले मोहनदास भारत को जानने ट्रेन से निकल पड़े। अपने बच्चों को अपने बड़े भाई के हवाले किया। वो समझ गए थे कि अपना बच्चा ही पहला व्यक्ति नहीं है। मेरे ख़्याल से अगर गांधी को ये बात मोहनदास रहते समझ आ गई होती तो शायद अपने बच्चे भी न पैदा करते। ख़ैर, ये हेतु-हेतु-मद की बात है। गाँधी की तलाश महात्मा पर ख़त्म हुई लेकिन आख़िरी व्यक्ति की तलाश अधूरी रही।

ये अधूरापन 15 अगस्त 1947 को महात्मा के एक विरोधाभासी काम में भी नज़र आया। इस दिन जब नेता और नीत (कुछ लोग इससे इतर अपने रंज-ओ-ग़म में भी थे) आज़ाद होने का मतलब गढ़ने का जश्न मना रहे थे तो महात्मा मौनव्रत पर थे। लेकिन अपना भाषण किसी और से पढ़वाया।

यानी, महात्मा मौन रहे लेकिन व्रत नहीं किया। महात्मा के स्तर से तो मुझे इसमें हिंसा भी नज़र आई। ख़ुद तो नहीं बोले लेकिन किसी दूसरे को बोलने को कह दिया। कहाँ चली गई थी वो गुड़ खाने वाली सीख। 

शायद, आख़िरी व्यक्ति को ढूँढ़ नहीं पाने से थक गए थे महात्मा। या, आख़िरी व्यक्ति की संख्या, तादाद इतनी थी कि फ़ेहरिस्त नहीं बना सकते थे तो टूट गए थे महात्मा। कुछ तो बात थी जो न वो बोल सके और न लोग सुन सके। और उसके बाद धीरे-धीरे फ़ुरसत का अकाल पड़ता चला गया। 

तो, आज कैसे याद करें महात्मा गाँधी को?

Can we have governance without politics, political parties?

Written on  22.09.19

Prime Minister Narendra Modi in Gujarat with state leaders at a political event earlier this month. (Photo: Twitter/@narendramodi)
Politics is the last resort of scoundrels. George Bernard Shaw, noted Irish playwright and social influencer of his time, came to this conclusion on the basis of his experiments with politics in late 19th and first half of the 20th centuries. Perception of people today is not much different. So, what about making India free of scoundrels or shrinking place for them to the minimum?

Political class in India don't necessarily convey their role as lawmakers. For aam aadmi, politicians as a class are those who rule over people. They are government. Constitutionally speaking, they are executive. Those outside executive don't really matter much. And, their own efforts are also meant only to get to that power of rule. Rule of law isn't in focus till they become the executive.

Is it not the time for a fundamental amendment in the Constitution?

Let's first consider the role of the executive in India. They are the political class winning mandate of people to decide what laws can be made and which need to be revoked. Plus, by virtue of the same mandate from the people, they chair various ministries, which career bureaucrats are perfectly capable of running.

Political class become ministers and take a call on a number of advices offered by domain expert bureaucrats or force their own decisions dictated by vested political or personal interests. They add a layer of already cumbersome decision-making process without having necessary expertise or qualifications.

India has seen people chairing a ministry which they did not have any idea about. And, even those with some idea were not necessarily known to smoothen the process and deliver better results. Defence ministry is a good example. No one would doubt the importance of defence ministry given the challenges India has been facing on this front.

Barring a few exceptions, defence ministry has been a parking lot for heavyweight politicians who could not be accommodated elsewhere in the executive. Expertise or interest has never been a criterion. In some cases, the incumbent defence minister eyed a home minister's or finance minister's portfolio.

External affairs ministry has not been very different from the defence ministry. But reason here is that almost all the prime ministers have taken the responsibility of foreign relation on themselves. The HRD ministry has been another bunny of the political class. It has been largely used to push one's narrative or ideology through textbook. This builds an image for a complete generation.

Wouldn't it be better to have a department without a minister with secretary of that department being made responsible and accountable? Wouldn't this be the real minimum government yet equally penetrative governance?

Role of politicians in that case would be limited to law-making for which they actually seek mandate constitutionally. The Constitution does not provide for election of a prime minister or the president. 

Under the present constitutional scheme, people vote not for a ruler of their constituency, which is already governed by a web of bureaucrats, but a representative who would debate and discuss on their behalf a proposed law or review the existing laws so that the basis of governance can be improved for public welfare ensuring safety, security, defence, opportunities for education and employment, and care in the old age and times of ill health.

The political class for some reasons -- that could not have very distant from the lure of power -- interpreted the mandate for law-making as the one for chairing ministries and become the masters of the steel-frame of bureaucracy.

There can still be a prime minister or the president to represent India abroad.

A Group of Secretaries (GoS) -- comprising of the top bureaucrats of all departments -- may be formed to take decisions on issues of national security etc.

Elections will, under that scheme, be held so that a new set of representatives could be sent to Parliament for making new laws and reviewing the existing ones.

Doesn't this present a better picture of governance with less political clutter and no political class with incorrigible sense of entitlement?

For reference, Harappa's was a very efficient civilisation with a rule of law that sustained it for about 2000 years. And, historians have not found a political class as we perceive today in Harappan civilisation. Governance without politics.

मंदी की समझ और मंदी की मार

4.9.19 का लेख


A woman is carrying bricks at a construction site. Many like her have lost their employment in the wake of policy initiatives such as demonetisation and GST rollout. (Photo source: Twitter)

गुणी लोग कहते हैं कि हम उत्तर आधुनिक युग में जी रहे हैं। यह सत्य के पार की दुनिया है। यानी, सत्य क्या है, इस पर बहस की गुंजाइश नहीं है क्योंकि सत्य अब न तो शोध का विषय है और न ही साधना का। ये बात मुझे इसलिए याद आ गई कि आजकल दो क़िस्म की बहस चारों ओर चल रही है। या, यूँ कहें कि दो में कम-से-कम एक बहस हर तरफ़ है।

कश्मीर और अर्थव्यवस्था। अच्छा, दोनों बहसों में कई समानताएँ भी हैं। ज़्यादातर बहस करने वाले दोनों में से किसी भी मुद्दों से जुड़े मूलभूत सत्य या तो जानते नहीं हैं या सत्य को मानते नहीं हैं। उनका कहना है कि जो उन्होंने कहा वही सत्य है। दूसरा पक्ष एजेंडावादी है, राष्ट्रीयता का एजेंडा या अलग्योझा का एजेंडा।

कश्मीर पर बड़े-बड़े बाजा बजा रहे हैं, देश और विदेश में भी तो हम मंदी की बात करते हैं। लेकिन, उसके पहले एक छोटा-सा वाक्या झेलना होगा आपको।

मैं दिल्ली के जिस इलाक़े में रहता हूँ वो गाँव, शहर और महानगर का एक अनूठा मिश्रण है। यहाँ रहते आपको यूपी, बिहार, बंगाल, हरियाणा के गाँवों में क्या चल रहा है, ऑलमोस्ट रियल टाइम मालूम पड़ जाता है। शहरी और महानगरी ख़बरें और जुगाड़ बड़ी तेज़ी से चलता ही है। ऐसे में ही, बीते रविवार यानी संडे को मैं उसी नाई की दुकान पर गया जहाँ 10 साल से जाता रहा हूँ।

उसने मंदी की समझ दिखाई। वो अभी-अभी गाँव से लौटा था। बिहार के मिथिला अंचल से, जहाँ से दिल्ली में सबसे अधिक मजदूरों की आपूर्ति होती है। दिल्ली-नोएडा-फ़रीदाबाद में सड़क किनारे खड़े मजदूरों, रिक्शा चलाने वालों से आप बेझिझक मैथिली बोल सकते हैं। आधे से अधिक इसे समझकर जवाब देते हैं। कुछ उसी ज़बान में, कुछ संकोच दिखा देते हैं।

मेरे नाई ने बताया, "गाँवों में 80-90 के दशक का माहौल बन रहा है। छिनैती (स्नैचिंग एंड लूट) ख़ूब हो रही है। अगर आप सुनसान रास्ते पर अकेले चले जा रहे हैं तो शिकार बनना लगभग तय है। कुछ नहीं तो पर्स और मोबाइल तो जाएगा ही। ऐसा करने वाले कोई गुंडे नहीं हैं बल्कि बड़ी संख्या उनकी है जो दिल्ली-एनसीआर, मुंबई-महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा वग़ैरह में नौकरी करते थे। 

"फ़ैक्ट्री बंद हो गई। थोड़े टाइम इंतज़ार किया और फिर बोरिया-बिस्तर बाँध ली। समस्या यह है कि काम घर पर भी हो तब तो मिले। लेकिन जीने के लिए पैसे तो चाहिए। अब जीवन वैसा रहा नहीं कि सिर्फ़ रोटी-चावल-दाल से काम चल जाता है। मोबाइल ज़रूरी है। आराम भी ज़रूरी है। दूसरों से बराबरी बराबर होनी चाहिए। तो, ये सब जो बेरोजगार हुए हैं वे छिनैती कर रहे हैं।

"और, सर छिनैती करने वाले भी कैसे हैं? बस 19-20 साल के लड़के। एक की बात बताऊँ तो मैंने नोटिस किया कि रोज़ रात को 11-12 बजे के आसपास वो निकल जाता था और क़रीब 3-4 बजे तक बाहर रहता था। 

"मैंने एक दिन पूछ लिया कि रात में कहाँ जाते हो। पहले तो उसने कहा कि दोस्त के घर। मैंने पूछा कौन-सा दोस्त है जो रात को ही मिलता है और रोज़ तुम्हें ही जाना पड़ता है, वो कभी नहीं आता। 

"बच्चा ही तो है, दबाव डाला तो बोल पड़ा कि चाचा नौकरी है नहीं, पैसे चाहिए तो छीन-छान करते हैं। अब आसानी से पैसा मिल जाता है और काम भी चलता है। मैं तो हैरान रह गया। लेकिन उसने कहा कि नौकरी है नहीं, और तब तक यही सहारा है। अब वो दिन को सोता है, दोपहर होने के पहले तक। मुझे तो इतना मालूम नहीं, आपलोग पढ़े-लिखे हैं, बताइए कि इसका उपाय क्या है।"

मेरे पास जवाब नहीं था। न ही मैंने देने की कोशिश की।

अब मंदी की बात आगे बढ़ाते हैं। लेकिन उससे पहले मंदी को परिभाषित कर लेते हैं। मेरी निजी नहीं बल्कि जिसे ज़्यादातर नहीं तो अधिकांश अर्थशास्त्री मानते हैं, ख़ासकर यूरोप और अमेरिका में। मॉडल भी उनका ही है तो उनकी परिभाषा से किसी को बहुत ऐतराज़ नहीं होगी, ऐसा मेरा मानना है।

अर्थव्यवस्था की उस अवस्था को मंदी कहते हैं जहाँ कम-से-कम दो क्रमिक तिमाही में जीडीडी सिकुड़ गई हो। यानी, जीडीपी ग्रोथ रेट नेगेटिव माने माइनस में चली गई हो। ऐसे में बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थान फ़ेल हो जाते हैं, ढह जाते हैं। जैसा कि अमेरिका में 2008-09 में हुआ। क़िताबों में जैसा 1929-30 के बारे में पढ़ाया जाता है।

भारत में फ़िलवक़्त ऐसा नहीं हुआ है। इसकी आशंका भी नहीं दिख रही है, इस समय। सबूत के तौर पर आँकड़ों का एक जाल आपके सामने रखता हूँ। आँकड़ें उलझाते हैं, लेकिन कई बार नज़र गड़ा लेना सही रहता है।

तिमाही जीडीपी -- विकास दर

अप्रैल-जून 2014 -- 6.7

जून-सितंबर 2014 -- 8.4

अक्टूबर-दिसंबर 2014 -- 6.6

जनवरी-मार्च 2015 -- 7.5

अप्रैल-जून 2015 -- 7.5

जून-सितंबर 2015 -- 7.6

अक्टूबर-दिसंबर 2015 -- 7.2

इसी वक़्त भारत ने विकास दर में चीन को पछाड़ा था, विकास दर में, जीडीपी में नहीं, सिर्फ़ ग्रोथ रेट में।

जनवरी-मार्च 2016 -- 9.2 (तकरीबन)

अप्रैल-जून 2016 -- 7.9

जून-सितंबर 2016 -- 7.5

अक्टूबर-दिसंबर 2016 -- 7.0

इसी दौरान नोटबंदी लागू की गई। क्या हुआ, कैसे हुआ लोगों को आमतौर पर पता ही है, इसलिए इसको लेकर आपका समय ज़ाया नहीं करूँगा। आगे बढ़ते हैं।

जनवरी-मार्च 2017 -- 6.1

ये आँकड़ा साल भर पहले की इसी तिमाही के दौरान वाले आँकड़े से तीन प्रतिशत नीचे था। अगली तिमाही में ये और नीचे चला गया। उस वक़्त भी हा-हाकार मच गया था। लगातार छः तिमाही में विकास दर नीचे गिरी थी। वो भी मंदी या रिसेशन नहीं था।

अप्रैल-जून 2017 -- 5.7

एक साल पहले की तिमाही के मुक़ाबले दो प्रतिशत कम। और, इसी समय लागू हुआ दूसरा आर्थिक भूचाल लाने वाला सुधार -- जीएसटी। लेकिन गनीमत रही कि अगली तिमाही में जीडीपी विकास दर में सुधार हो गया। छः तिमाही बाद जीडीपी ग्रोथ रेट ऊपर की ओर गई -- 5.7 से 6.3 प्रतिशत। बढ़ते, बढ़ते जीडीपी ग्रोथ रेट 8.2 प्रतिशत पर पहुँची

जून-सितंबर 2017 -- 6.3

अक्टूबर-दिसंबर 2017 -- 7.2

जनवरी-मार्च 2018 -- 7.3

अप्रैल-जून 2018 -- 8.2

इसके बाद से अब तक जीडीपी विकास दर में गिरावट ही होती चली आ रही है।

जुलाई-सितंबर 2018 -- 7.1

अक्टूबर-दिसंबर 2018 -- 6.6

जनवरी-मार्च 2019 -- 5.8

अप्रैल-जून 2019 -- 5.0

इससे कम विकास दर मनमोहन सिंह सरकार के आख़िरी दो साल में ही देखने को मिले थे। यानी, विकास दर के मामले में अभी की हालत 2014 से पहले से बेहतर है। मेरा मक़सद नरेंद्र मोदी सरकार को पिछली सरकार से बेहतर ठहराना नहीं है।

तो, भारत में हुआ क्या है कि इतना शोर मचा हुआ है? शोर इसलिए है कि भारत में काम करने वाले हर साल तकरीबन 1 करोड़ 20 लाख नए कामगार काम की चाहत लिए मार्केट में पहुँच रहे हैं। पाँच प्रतिशत की विकास दर में उतनी नौकरियाँ नहीं पैदा हो सकती है जितनी की ज़रूरत है।

दूसरी बात है ये है कि बीते पाँच साल में सरकार ने टेक्नोलॉजी के ज़रिए सरकार और बिज़नेस चलाने पर ज़ोर दिया है। नोटबंदी और जीएसटी भी एक स्तर पर टेक्नोलॉजी को बढ़ावा दे रहे हैं। टेक्नोलॉजी बढ़ने का एक मतलब ये भी होता है कि काम मशीन करेगी या कंप्यूटर करेगा। पहले से ज़्यादा। यानी, मानव-श्रम की ज़रूरत कम होगी। यानी, नौकरियाँ कम होंगी। लोग हटाए जाएँगे।

ये सब तब हुआ जब नोटबंदी, जीएसटी, बैंकिंग-नॉन-बैंकिग संकट, कालाबज़ारी, कालाधन आदि पर क़ानूनी सख़्ती, इनकम टैक्स का कड़ा होता पहरा इत्यादि इत्यादि हो हुआ। नोटबंदी और जीएसटी ने असंगठित और कैश-आधारित व्यवसाय को लगभग बर्बाद कर दिया। 

ये सब धंधे सरकार की नज़र पर थे क्योंकि यहाँ टैक्स चोरी बहुत होता था। लेकिन, ये धंधे, फ़ैक्ट्रियाँ बड़ी तादाद में नौकरियाँ दे रही थी। ये ठप पड़ गई और नौकरियाँ स्वाहा हो गई। जिनकी नौकरियाँ गई उनमें मेरे नाई के गाँव का उसका भतीजा भी रहा होगा।

5 numbers linked to ideal heart health