कल और आज के आईने में तरक़्क़ी



पहले के पढ़े-लिखे लोगों का जीवन आसान था। इसमें अब कोई दो राय नहीं है। उनके जीवन का सबसे बड़ा, ज़्यादातर के लिए एकमात्र, उद्देश्य होता था एक नौकरी पा लेना। उसके बाद नौकरी ही जीवन। शादी अपरिहार्य। हसरत के नाम पर बच्चे और उनकी शिक्षा, नौकरी और शादी। बस इतना सा ख़्वाब होता था।

पढाई, लिखाई, समाज की चौकीदारी, नेताओं का विश्लेषण, एक्टिवोज़म, लेखन, कविताई वग़ैरह के लिए एक अलग जुझारू समुदाय होता था।

आज वक़्त बदल गया है। अब टीवी और एफ़एम के अतिरिक्त ख़रीदा हुआ फ़्री डेटा, फ़ेसबुक और ट्विटर, टिकटॉक, हेलो जैसे अगणित सोशल मीडिया के पटल हैं। इनसे दूर रहना ग़ुनाह है। और, साथ रहना चुनौती। हर किसी को स्वीकार करना है।

टीवी चैनलों के एंकर की तरह हर किसी को सर्वज्ञ रहना है, नहीं तो दूसरा जीत जायेगा। समानता के अधिकार के प्रति जागरूकता में हमसे आगे कोई निकल जाए तो समाजवाद हार जायेगा। बुद्ध, गाँधी और मार्क्स पैदल हो जाएंगे। हम उनके रक्षक हैं।

क्रिकेट, टेनिस, फुटबॉल, एथलेटिक्स, स्पेस साइंस, सोशियोलॉजी, साइकोलॉजी, क्लाइमेट चेंज, बाढ़, सूखा, अकाल, किसान, पेप्सी, टाटा, संविधान, कोर्ट, घर, कंक्रीट सबपर एक समान वरदहस्त होना है।

आज हमें लेखक, कवि, विचारक और विशारद सब एक साथ इकट्ठे बनने की चुनौती का अकेले सामना करना है। हम पर लेखक बनने का उतना ही दबाव है जितना कवि बनने का या जितना बजट समझने, समझाने का या एक्टिविस्ट बनने का।

बेटा, बेटी, भाई, बहन, पिता वग़ैरह बनने की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी आउटसोर्स किये जा रहे हैं। मजबूरी है। एक ही जीवन है। इसी में दुनिया भी देखनी है।

पुराने साथी, नए सहयोगी, कल का छोकरा सबके सब तुर्की, लंदन, न्यूजीलैंड, फ़िनलैंड घूमकर आ गए। अमेरिका, बैंकॉक, मलेशिया आदि आदि में गिने जाने लगे हैं। गोवा, शिमला, नैनीताल, सिक्किम तो नवदलित चेतना वालों के लिए है। और, धूमने इसलिए नहीं जाना है कि हमारा मन है बल्कि इसलिए कि फेसबुक सरीखे पटलों पर लोग धुआँधार पोस्ट ठेल रहे हैं। समाजवाद हार जायेगा अगर हम न जा सके। फिर सरकार को कोसना है। सिस्टम को गरियाना है। कमियाँ गूगल करनी है और चस्पा देना है। कुछ नया करना है। पुराना तो सब हो चुका है।

तनाव है, चार से छः इंच के एक छोटे से कंप्यूटर में/पर/द्वारा/से। पहले के पढ़े लिखे लोगों का जीवन आसान था। कम लिखने पढ़ने वाले उनको अपने से बेहतर समझ उनकी राय पर अमल कर जीवन गुजार देते थे। उन्हें समाजवाद का ज्ञान नहीं था। उनपर पूँजीवाद का कब्ज़ा था तब भी लेकिन गिरफ़्त का अंदाज़ा नहीं था।

कर्म उँगलियों से ज़्यादा पैरों की ताक़त और हाथ के मशल्स से किया जाता था। नींद ज़्यादा आती थी। सुकून ज़्यादा था। माने, पहले के पढ़े लिखे लोगों का जीवन आसान था।

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