कृष्ण कौन थे?

Baby Krishna at Deogarh Temple, Jhansi
Devaki handing over Baby Krishna to Vasudeva | 4th-5th century CE I Gupta Period I Deogarh temple, Jhansi (Photo: National Museum/Twitter)


कृष्ण विष्णु के आठवें अवतार थे। कृष्ण देवकी के आठवीं संतान थे। उनका जन्म सावन समाप्त होने के आठवें दिन हुआ था। 

उनका जन्मदिन एक त्योहार है। इसे दो दिन मनाया जाता है। पहला दिन गोकुल अष्टमी जबकि दूसरा दिन काल अष्टमी कहलाता है। यह 48 घंटों का एक महापर्व है।

लेकिन कृष्ण कौन हैं या कौन थे? ईश्वर के अवतार के रूप में तो उनकी कहानी जग-व्याप्त है। लेकिन ऐतिहासिक सेकुलर ग्रंथों में कृष्ण कहाँ हैं?

बरसों पहले कृष्ण भक्ति काव्य पढ़ते समय यह सवाल मन में कौंधा था। थोड़ी जाँच की तो कुछ बातें मालूम पड़ी। कृष्ण का ज़िक्र ऐतिहासिक ग्रंथों में है। लेकिन जिस तरह कृष्ण शब्द का अर्थ काला, अंधकार और रहस्यमयी है, उसी प्रकार गोप-नीय तरीक़े-से कृष्ण के बारे में इशारा या जानकारी ऋग्वेद में भी मिली।

ऋग्वेद अमूमन प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है। इसके कई सूक्तों और श्लोकों के काल-खंड को लेकर मतभेद है लेकिन इसे भारतीय इतिहास के रिकंस्ट्रक्शन में बहुत अहम माना जाता है। सबसे पुरानी पुस्तक के रूप में इसका स्थान है।

मुझे थोड़ा संदर्भ मालूम था तो गूगल करके वेबसाइट की जाल और जंजाल में भी उतनी कठिनाई नहीं हुई इस बात को ढूँढने में कि ऋग्वेद के किस श्लोक में यह बात लिखी है। चूँकि मैंने ख़ुद इसे अंग्रेज़ी में पढ़ा था तो पहले वही पाठ देता हूँ।

ऋग्वेद के तीसरे मंडल के 55वें सूक्त का पहला श्लोक (आगे बस बात दूँगा, श्लोक विवरण नहीं दूँगा) --

"One who was born before sunrise [उषसः पूर्वा] and later taken to the place of the cows [पदे गोः], is one without a second [त्वमेकम]. He is adorned with bright, attractive and transcendental ornaments. The Gods and the Seers worship him with unlimited faith and devotion." 

यानी, वह जिसका जन्म ब्रह्म बेला से पूर्व हुआ था और जिसे जन्म के बाद गायों अर्थात् यादवों के प्रदेश ले जाया गया था, वह अद्वैत है। वह उज्ज्वल है, आकर्षक है, और पारलौकिक अनुभूति देने वाले आभूषण पहने हुए है। देवता और संत उसकी आराधना असीमित विश्वास और श्रद्धा से करते हैं। 

ए एल बाशम समेत अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि ऋग्वेद महाभारत से पहले रचा गया था। और, महाभारत और कई दूसरे पुराणों मे कृष्ण के जन्म की जो कथा है उसके मुताबिक़ कृष्ण का जन्म मध्य-रात्री के आस-पास हुआ था, मथुरा में हुआ था जो एक मजबूत राजा कंस की राजधानी थी। वह देवकी के सभी संतानों की हत्या करता जा रहा था क्योंकि उसे डर था कि देवकी के संतान के हाथों उसकी हत्या हो सकती है।

संयोग से कृष्ण के जन्म के वक़्त जो आधी रात के पार या पास का समय था संतरी और द्वारपाल सो गए थे। नवजात की रक्षा का अवसर मिला, उसके पिता वसुदेव को। और कृष्ण गोपों के मुखिया नंद के पास सुरक्षित पहुँचा दिए गए। गोप यानी गो-वंशों के मालिक, रखवाले, पालनहार।

ऋग्वेद के पहले मंडल के एक श्लोक (1.164.31) में गोपम यानी गोप या गोपाल का ज़िक्र है। इस श्लोक की अलग-अलग व्याख्या की गई है। एक व्याख्या कृष्ण से जुड़ती है। इसके अनुसार —

“I saw Gopam. He never falls from his position; sometimes he is near, and sometimes far, wandering on various paths. He is a friend, decorated with a variety of clothes. He comes again and again to the material world.”

यानी, मैंने गोप को देखा। वह (आदर्श के) अपने ऊँचे स्थान से कभी नहीं फिसलता है, कभी पास होता है, कभी दूर, कई पथों पर वह विचरता है। वह एक मित्र है, विभिन्न प्रकार के वस्त्रों से सुसज्जित है। वह बार-बार इस भुवन पर आता है (...अवतरित भुवनेश्व अंतः)।

मुझे एक और श्लोक ऋग्वेद का मिला जहाँ कृष्ण का सीधा उल्लेख है। लेकिन वेद-पुराण की मान्यताओं की समुचित जानकारी और समझ नहीं होने के कारण इसका विस्तार और व्याख्या नहीं कर पा रहा हूँ।

यह है ऋग्वेद के पहले मंडल के 116वें सूक्त का 23वाँ श्लोक (मैंने कहा तो था कि श्लोकवार विवरण नहीं दूँगा लेकिन कोई जाँच सके इसलिए देना पड़ा) —

“And with your might, to help the weary Sayu, you made the barren cow yield milk, Nasatyas. To Visvaka, Nasatyas! Son of Krsna, the righteous man who sought your aid and praised you.”

इसमें कृष्ण को एक सच्चा और धार्मिक पुरुष बताया गया है। इसको अगर श्रीमद्भागवत्गीता से जोड़कर देखें तो पिछले दोनों श्लोक के अर्थ सार्थक होते हैं। गीता में कृष्ण कहते हैं कि धर्म की स्थापना के लिए वह बार-बार धरती यानी भुवन पर आते है।

गीता का एक और श्लोक यहाँ मज़ेदार है। अध्याय 15, श्लोक 15।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो

मत्त: स्मृतिर् ज्ञानम अपोहनं च |

वेदैश्च सर्वैर अहम एव वेद्यो

वेदान्तकृद् वेद-विद एव चाहम् 

यहाँ कृष्ण स्वयं को सभी प्राणियों के हृदय में रहने वाले कहते हैं। स्वयं से स्मृति, ज्ञान और विस्मृति के निकलने की बात घोषित करते हैं। वह स्वयं को ही वेदों के माध्यम से जानने योग्य बताते हैं। स्वयं को वेदांत के रचयिता कहते हैं। और, वेदों के असली अर्थ को जानने वाला बतातें हैं।

इतिहासकार आमतौर पर उपनिषद् को वेदांत मानते हैं। लेकिन क्या गीता कहने के समय उपनिषद् गढ़े जा चुके थे? क्या कृष्ण भी उसे ही वेदांत कह रहे थे जिसे आज के इतिहासकार वेदांत मान रहे हैं?

संदेह लगता है क्योंकि अगर कृष्ण के वेदांत को उपनिषद् मान लें तो इस श्लोक के बाक़ी हिस्से मिसफ़िट लगने लगते हैं। वेदों के आख़िरी श्लोक जो गीता के समय थे, संभवतः कृष्ण उसे ही वेदांत बता रहे हों। क्या यह संभव नहीं है?

यदि बात यह है तो कृष्ण ही वेदों के रचयिता ठहरते हैं। उन्होंने उसका अंत लिखा है। उसके बाद के वेदांग किसी और ने जोड़े हैं। वैसे भी कहते हैं कि यमुना ने वेद को वेदव्यास यानी कृष्ण द्वैपायन निगमबोध घाट (दिल्ली) पर सौंपा था। यमुना कृष्ण की क्रीड़ास्थली है।

बस एक और बात। कृष्ण और विष्णु संबंध।

ऋग्वेद के पहले मंडल के 22वें सूक्त का 18वाँ श्लोक —

त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः

अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्

“Vishnu, the Gopa, who is deceived by none, strode three steps, [and] thereby establishing Dharma that he deemed righteous.”

यानी, विष्णु ही गोप थे। वही गोप जिनका जन्म ब्रह्म बेला के पहले हुआ था और जिन्हें गायों के प्रदेश ले जाया गया था।

 इसे लिखते-लिखते कृष्ण जन्म बेला आ ही गई है। तो, जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ। कृष्ण को। आपको भी।


(इस लेख के अकाट्य होने का दावा नहीं है। बस इतनी-सी कोशिश है बताने की कि कृष्ण कोई मिथकीय कैरेक्टर नहीं थे। कृष्ण के कृष्ण (जानकारी का अंधेरा) में होने के कारण कृष्ण (रहस्यमयी, कालिमा में ग़ुम) हो गए। इस पर भारतीय परंपरा की समझ रखने वालों को शोध करना चाहिए।)

माई भाग कौर को जानते हैं? कितना जानते हैं?

 

Mai Bhag Kaur with her horse in a caricature
माई भाग कौर का कैरिकेचर। तस्वीर सोशल मीडिया से ली गई है। इस कैरिकेचर पर मेरा दावा नहीं है।

भारतीय फ़ौज में महिलाओं की परमानेंट कमीशन और फिर लड़ाकू दस्ते का हिस्सा बनने लड़ाई अभी भारत में एक मुद्दा है। उन्हें यह अधिकार सहज नहीं मिला। अंग्रेज़ी मॉडल की फ़ौज है जिसका 75 साल से भारतीयकरण धीरे-धीरे हो रहा है। इसलिए यह सवाल लाज़िमी है कि क्या आप माई भाग कौर को जानते हैं, अगर हाँ तो कितना जानते हैं।

सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में वे थी। गुरु गोबिंद सिंहजी की शिष्या। उनकी अंगरक्षक बनी। और, 1705 में औरंगज़ेब की सेना को खदेरने के बाद माई भागो के नाम से फ़ेमस हुई।

अभी पाँच साल पहले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर बीबीसी ने उन्हें याद किया था। दुनिया की तीन सबसे निर्भीक और बहादुर महिलाओं में शुमार करके। दरअसल बीबीसी रिपोर्ट की गिनती ही माई भागो से शुरू हुई थी। दो अन्य थी, चीन की चिंग शीह, 19वीं सदी और अमेरिका की ज्यनेट्ट रैंकिन।

माई भागो 40 सिख सैनिकों के साथ थी जब गुरु गोबिंद सिंह समेत वे मुग़ल सैनिकों द्वारा घिर गए थे। मुग़ल गुरु का पीछा कर रहे थे। संख्या में कम होने से सिख सैनिकों की हिम्मत जवाब दे रही थी। लड़ाई के मैदान में वे पीछे मुड़ रहे थे, गुरु को छोड़कर। तभी माई भागो सामने आई। सिख सैनिकों को फटकार लगाई और सेनापति की भूमिका अपनाई। सैनिकों में जोश भरा।

उसके बाद तो दुश्मनों की सेना में क़त्लेआम मचा दिया। माई भागो ऐसे लड़ी और सैनिकों का नेतृत्व किया कि मुग़ल पीछे हट गए। गुरु गोबिंद सिंह ने उन सैनिकों को माफ़ कर दिया। हालाँकि उस लड़ाई में वे 40 सैनिक जीवित नहीं बचे। लेकिन माई भागो ने गुरु की रक्षा की।

माई भागो की क्षमता से गुरु इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना निजी अंगरक्षक नियुक्त किया। यह परंपरा भारत में नई नहीं थी। मौर्य सम्राट के अंगरक्षक महिला सेनानी होती थी।

माई भागो का परिवार सिख गुरुओं का सेवक रहा था। उनके दादा भाई परे शाह गुरु अर्जन देव और उनके चचेरे दादा भाई लंगह गुरु अर्जन देव के बाद गुरु हरगोबिंद की सेवा में भी रहे थे। भाई लंगह तो स्वर्ण मंदिर के निर्माण में गुरु अर्जन देव के साथ थे और उन पाँच सिखों में जो गुरु अर्जन देव के साथ शहादत के लिए लाहौर गए थे।

गुरु अर्जन देव पाँचवें गुरु थे। मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने उन्हें क़ैद किया था। पाँच दिन तक टॉर्चर किया। और, पाँच शिष्यों के साथ वे लाहौर गए। भाई लंगह उनमें से थे। गुरु की शहादत के बाद उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम भाई लंगह ने किया था।

बहरहाल, माई भागो ने जिस युद्ध में हिस्सा लिया था, वह खिदराना में हुआ था। मुक्तसर के युद्ध के नाम पर इतिहास में दर्ज है। तारीख़ थी 29 दिसंबर 1705। संयोग की बात है औरंगज़ेब का शासन सवा साल के भीतर ख़त्म हो गया, 3 मार्च 1707 को।

गुरु गोबिंद सिंह ने इन 40 सिख सैनिकों को चाली मुक्ते यानी आज़ाद चालीस कहकर संबोधित किया। खिदराना का नाम इनके ही संबोधन पर मुक्तसर, आज़ादी यानी मुक्ति का तालाब कहा। यह गुरु गोबिंद सिंह का आख़िरी युद्ध था।

माई भागो इसके बाद गुरु के ही साथ रही। उनके साथ वे दमदमा साहिब दिल्ली, आगरा और नांदेड़ गई, जहाँ गुरु गोबिंद सिहं ने 1708 में आख़िरी साँस ली। नांदेड़ के तख़्त हज़ूर साहिब के परिसर में बंगा माई भागो नाम से एक हॉल है। माई भागो के निवास-स्थान के रूप में। गुरु के साथ।

गुरु के बाद माई भागो कर्णाटक के जिनवारा, बिदर के पास चली गई और सिख पंथ से लोगों को अवगत कराती रही। जिनवारा की वह जगह अब तप स्थान माई भागो के रूप में जाना जाता है। एक गुरुद्वारा है।

राणे, उद्धव की राड़

Union minister Narayan Rane and his bete noir Uddhav Thackeray, the Maharashtra chief minister have a history of political rivalry. (Photos: From their official Twitter handles)

नाम में क्या रखा है? लेकिन नारायण और उद्धव दोनों नामों का एक इतिहास है। नारायण विष्णु के कई नामों में से एक है। कृष्ण विष्णु के अवतार माने गए। इस लिहाज से उन्हें नारायण कहा गया। उनके एक मित्र थे, नाम था उद्धव। इनके बारे में सूरदास ने कहा है कि रूप-काया में दोनों समान थे, एक जगह रहते थे, एक-सी बात करते थे लेकिन नारायण यानी कृष्ण और उद्धव स्वभाव में विपरीत-ध्रुवी थे। 

कृष्ण और उनके मित्र उद्धव से तुलना तो कतिपय नहीं है लेकिन जैसा कि महान लोगों की कथाओं के साथ होता है कि वे दृष्टव्य बन जाते हैं, ऐसा ही होता लग रहा है। नारायण राणे और उद्धव ठाकरे भी एक ही राजनीतिक मूल के हैं। शिव सेना दोनों की जड़ है। लेकिन पौराणिक प्रतिस्पर्धा कर उद्धव नारायण कृष्ण तो नहीं बन पाए लेकिन आज के महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे नारायण राणे से कंपीट कर उनपर भारी पड़ गए।

राणे के बारे में कहते हैं कि वे 1960 के दशक में हरिया-नारिया-गैंग के मेंबर थे। यह गैंग तब के बॉम्बे के चेम्बूर में स्ट्रीट फ़ाइट के लिए जाना जाता था। राणे गैंग से निकलकर 1970 के दशक में शिवसेना का हाथ पकड़ लिया। उस वक़्त बाल ठाकरे बड़ी तेज़ी से उभर रहे थे।

बहुत जल्दी राणे बाल ठाकरे की शिव सेना में शाखा प्रमुख बन गए। यानी एक स्थानीय यूनिट के नेता। और, 1980 के दशक में तो शिव सेना के टिकट पर कॉरपोरेटर भी बन गए। जब 1990 का दशक आया और बीजेपी से जुड़ी पार्टियाँ शासन में आने लगी तो राणे शिव सेना के बड़े नेता बन चुके थे। बाल ठाकरे, राज ठाकरे, मनोहर जोशी जैसे नेताओं के बाद राणे की गिनती होने लगी थी। साल 1999 में तो वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी बने।

हालाँकि जब वे मुख्यमंत्री बने तो बाल ठाकरे का पुत्र-प्रेम उनकी बुज़ुर्ग़ियत पर हावी होने लगा था। राज ठाकरे भी किनारे किए जाने लगे थे। उद्धव ठाकरे जो वर्षों राजनीति से दूर रहने के बाद पार्टी में सक्रिय हो गए थे अमूमन बैकग्राउंड में रहकर काम कर रहे थे। कुछ लोग तो कहते थे कि उद्धव ठाकरे को मराठी भी अच्छे से बोलनी नहीं आती थी।

लेकिन अंग्रेज़ी की कहावत — रक्त जल से गाढ़ा होता है — की राह पर शिव सेना का भविष्य चल पड़ा था। यह कहावत महज़ एक भौतिकी के तथ्य को नहीं बताता है, इसका झन्नाटेदार ज्ञान राणे और राज ठाकरे को हो चुका था। राणे का तो छोड़िए, राज ठाकरे की स्थिति की कल्पना करिए।

राजनीतिक तौर पर एक बड़ा मज़ेदार वाकया मुझसे पुराने पत्रकार सुनाया करते हैं। घटना 1999 की है। महाराष्ट्र में चुनाव था। राणे समेत कई नेताओं की मेहनत से एक लिस्ट बनी कि कौन कहाँ से चुनाव लड़ेगा या लड़ेगी। उद्धव के पास फ़ाइनल लिस्ट पहुँची। उन्हें 15 नाम नहीं जँचे। बदल दिए गए।

नारायण राणे भड़क गए कि ऐसा कैसे। आख़िरकार वे मुख्यमंत्री थे। और, उद्धव बाल ठाकरे के लड़के। लेकिन राणे की शिकायत के बावज़ूद उद्धव के काटे नाम वापस नहीं जोड़े गए। नाम-कटुआ नेताओं ने अलग से पर्चा भरा, निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में। मज़ेदार बात यह रही कि 15 में से 12 जीत गए। राणे चौड़े हो गए। लेकिन उद्धव का वज़न बढ़ता ही चला गया।

साल 2003 में बाल ठाकरे के आशीर्वाद से उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे द्वारा प्रस्तावित होकर शिव सेना प्रमुख बन गए। कहते हैं कि नारायण राणे को यह बात इतनी चुभी कि सीधे बाल ठाकरे से मिले और अपनी नाराज़गी जताई। बाल ठाकरे राणे को प्यार करते होंगे नहीं तो उन्हें इसके बाद भी दो साल तक पार्टी में टिके तो नहीं रहने देते। उनकी पसंद, उनका वचन, पार्टी में उनका शासन और उनके बेटे को चुनौती तो दी ही थी राणे ने।

ख़ैर, राणे की उद्धव से अदावत चलती रही। उद्धव जीतते रहे और नारायण हाशिए पर छिटकते रहे। साल 2005 में, राणे ने उद्धव ठाकरे को चिट्ठी लिखी ये कहने के लिए उनके नेतृत्व वाली शिव सेना बाल ठाकरे की शिव सेना नहीं है। इसमें शिव सैनिकों को प्यार और सम्मान नहीं मिलता है।

उसी चिट्ठी में राणे ने इस्तीफ़ा भी दे दिया। इसका जवाब बाल ठाकरे ने अगले दिन एक ऑडिटोरियम में दिया। राणे को पार्टी से निष्कासित करके। 

मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है कि राजनीतिक दल के नेता इस्तीफ़ा दे चुके बाग़ियों को पार्टी से निकालते क्यों हैं। पता नहीं, इसके पीछे सिर्फ़ ईगो है या कोई राजनीतिक-क़ानूनी गाँठ।

बाल ठाकरे ने कहा कि राणे ने पार्टी के साथ धोखा किया। वैसे, विरोध तो पुत्र का हुआ था। राणे ने कहा कि पुत्र-मोह हर बात से ऊपर हो चुकी थी। शिव सेना के भीतर राणे के कई उर्फ़ रख दिए गए।

दो उपनाम बड़े चटकारे के साथ लिए जाते थे। नागोबचो पिल्लू और कोम्ड़ी चोर। नाग हुआ साँप, पिल्लू बच्चा, कोम्ड़ी यानी मुर्ग़ी। दरअसल, हरिया-नारिया-गैंग से पहले चेम्बूर में नारायण राणें मुर्ग़ियों की दुकान चलाते और चलवाते थे। इसलिए मंगलवार को जब उनके उद्धव को थप्पड़ मारने वाले बयान पर हंगामा बरपा तो कई शिव सैनिक मुर्ग़ी लेकर प्रदर्शन करते वीडियो में दिखे।

राणे का परिवार भी कम नहीं। उन्होंने बाल ठाकरे के बारे में तो बहुत कुछ नहीं कहा लेकिन उद्धव ठाकरे और उनके बेटे आदित्य ठाकरे को ख़ूब सुनाया है। आदित्य ठाकरे के लिए 'बेबी पेंग्विन' का नाम राणे परिवार से ही फेंका गया बताया जाता है। मंगलवार को भी राणे ने कहा कि सुशांत सिंह राजपूत और दिशा सालियान की मौत से आदित्य ठाकरे का संबंध है। उद्धव ठाकरे को घर कोम्बड़ा कहा। माने, घर-घुसना। 😉

चापलूसी का विज्ञान

Dogs waiting outside a meat shop in Siwan, Bihar

छोटी-सी कहानी है। बात शायद 2012 की है। मैं नेशनल ब्रॉडकास्टिंग अकेडमी में रिपोर्टिंग, टीवी प्रोडक्शन और जीके पढ़ा रहा था। पत्रकारिता से एक ब्रेक था। कुछ फ़ितरत, थोड़ी मजबूरी और ज़रा-सी इच्छा भी। वहाँ भारत सर भी पढ़ाते थे, भारत जारोलिया। ज़हीन व्यक्ति।

एक बार हम बातें कर रहे थे कि किस तरह लोग दफ़्तरों में मन की रीढ़ मोड़ते, झुकाते रहते हैं। शब्दगत तो नहीं लेकिन मूल में भाव में कुछ ऐसी बातें हुईं:

लोग बॉस को ख़ुश करने, रखने के लिए जी-जी-जी और तारीफ़ में लगे रहते हैं।

हाँ, शायद नौकरी जाने का डर है कि उसके बाद परिवार कैसे चलाएँगे या भविष्य के अनजानेपन से डर लगता है।

भविष्य तो अनजान ही होता है। यही इसकी ताक़त और ख़ूबसूरती भी है। लेकिन, इससे कितना डर सकता है कोई?”

ये डर शायद इसलिए भी चलता चला जा रहा है कि आमतौर पर बॉसेज़ इसे दूर करने की कोशिश नहीं करते है। तारीफ़ उन्हें अच्छी लगती है।

मज़े की बात है कि जो यह कहते हैं कि मुझे अपनी तारीफ़ और चापलूसी पसंद नहीं है, उनकी ही मीटिंग में उनके जूनियर वाह! सर कहते हैं, और बॉस इस बात से, और उस जूनियर से ख़ुश होता है कि उसे [बॉस को] चापलूसी पसंद नहीं है।

ये भी तो चापलूसी ही हुई न...

यही तो चापलूसी का विज्ञान है।

ईमानदार हो या बेइमान, दोनों इस बात को सुनकर ख़ुश होते हैं कि कोई उसे ईमानदार कह रहा है। और, इसी का पारिश्रमिक तारीफ़ करने वाले को दे देता है। 

तारीफ़ के बाद भी वस्तुनिष्ठ, ऑब्जेक्टिव रहना प्रशंसा, प्रशंसा करने वाले व्यक्ति और काम ,तीनों की तारीफ़, उनका सम्मान है। यहीं से चापलूसी पर चाबुक चलती है। वो कहते हैं न, निपिंग इन द बड।

5 numbers linked to ideal heart health