चापलूसी का विज्ञान

Dogs waiting outside a meat shop in Siwan, Bihar

छोटी-सी कहानी है। बात शायद 2012 की है। मैं नेशनल ब्रॉडकास्टिंग अकेडमी में रिपोर्टिंग, टीवी प्रोडक्शन और जीके पढ़ा रहा था। पत्रकारिता से एक ब्रेक था। कुछ फ़ितरत, थोड़ी मजबूरी और ज़रा-सी इच्छा भी। वहाँ भारत सर भी पढ़ाते थे, भारत जारोलिया। ज़हीन व्यक्ति।

एक बार हम बातें कर रहे थे कि किस तरह लोग दफ़्तरों में मन की रीढ़ मोड़ते, झुकाते रहते हैं। शब्दगत तो नहीं लेकिन मूल में भाव में कुछ ऐसी बातें हुईं:

लोग बॉस को ख़ुश करने, रखने के लिए जी-जी-जी और तारीफ़ में लगे रहते हैं।

हाँ, शायद नौकरी जाने का डर है कि उसके बाद परिवार कैसे चलाएँगे या भविष्य के अनजानेपन से डर लगता है।

भविष्य तो अनजान ही होता है। यही इसकी ताक़त और ख़ूबसूरती भी है। लेकिन, इससे कितना डर सकता है कोई?”

ये डर शायद इसलिए भी चलता चला जा रहा है कि आमतौर पर बॉसेज़ इसे दूर करने की कोशिश नहीं करते है। तारीफ़ उन्हें अच्छी लगती है।

मज़े की बात है कि जो यह कहते हैं कि मुझे अपनी तारीफ़ और चापलूसी पसंद नहीं है, उनकी ही मीटिंग में उनके जूनियर वाह! सर कहते हैं, और बॉस इस बात से, और उस जूनियर से ख़ुश होता है कि उसे [बॉस को] चापलूसी पसंद नहीं है।

ये भी तो चापलूसी ही हुई न...

यही तो चापलूसी का विज्ञान है।

ईमानदार हो या बेइमान, दोनों इस बात को सुनकर ख़ुश होते हैं कि कोई उसे ईमानदार कह रहा है। और, इसी का पारिश्रमिक तारीफ़ करने वाले को दे देता है। 

तारीफ़ के बाद भी वस्तुनिष्ठ, ऑब्जेक्टिव रहना प्रशंसा, प्रशंसा करने वाले व्यक्ति और काम ,तीनों की तारीफ़, उनका सम्मान है। यहीं से चापलूसी पर चाबुक चलती है। वो कहते हैं न, निपिंग इन द बड।

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