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माई भाग कौर को जानते हैं? कितना जानते हैं?

 

Mai Bhag Kaur with her horse in a caricature
माई भाग कौर का कैरिकेचर। तस्वीर सोशल मीडिया से ली गई है। इस कैरिकेचर पर मेरा दावा नहीं है।

भारतीय फ़ौज में महिलाओं की परमानेंट कमीशन और फिर लड़ाकू दस्ते का हिस्सा बनने लड़ाई अभी भारत में एक मुद्दा है। उन्हें यह अधिकार सहज नहीं मिला। अंग्रेज़ी मॉडल की फ़ौज है जिसका 75 साल से भारतीयकरण धीरे-धीरे हो रहा है। इसलिए यह सवाल लाज़िमी है कि क्या आप माई भाग कौर को जानते हैं, अगर हाँ तो कितना जानते हैं।

सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में वे थी। गुरु गोबिंद सिंहजी की शिष्या। उनकी अंगरक्षक बनी। और, 1705 में औरंगज़ेब की सेना को खदेरने के बाद माई भागो के नाम से फ़ेमस हुई।

अभी पाँच साल पहले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर बीबीसी ने उन्हें याद किया था। दुनिया की तीन सबसे निर्भीक और बहादुर महिलाओं में शुमार करके। दरअसल बीबीसी रिपोर्ट की गिनती ही माई भागो से शुरू हुई थी। दो अन्य थी, चीन की चिंग शीह, 19वीं सदी और अमेरिका की ज्यनेट्ट रैंकिन।

माई भागो 40 सिख सैनिकों के साथ थी जब गुरु गोबिंद सिंह समेत वे मुग़ल सैनिकों द्वारा घिर गए थे। मुग़ल गुरु का पीछा कर रहे थे। संख्या में कम होने से सिख सैनिकों की हिम्मत जवाब दे रही थी। लड़ाई के मैदान में वे पीछे मुड़ रहे थे, गुरु को छोड़कर। तभी माई भागो सामने आई। सिख सैनिकों को फटकार लगाई और सेनापति की भूमिका अपनाई। सैनिकों में जोश भरा।

उसके बाद तो दुश्मनों की सेना में क़त्लेआम मचा दिया। माई भागो ऐसे लड़ी और सैनिकों का नेतृत्व किया कि मुग़ल पीछे हट गए। गुरु गोबिंद सिंह ने उन सैनिकों को माफ़ कर दिया। हालाँकि उस लड़ाई में वे 40 सैनिक जीवित नहीं बचे। लेकिन माई भागो ने गुरु की रक्षा की।

माई भागो की क्षमता से गुरु इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना निजी अंगरक्षक नियुक्त किया। यह परंपरा भारत में नई नहीं थी। मौर्य सम्राट के अंगरक्षक महिला सेनानी होती थी।

माई भागो का परिवार सिख गुरुओं का सेवक रहा था। उनके दादा भाई परे शाह गुरु अर्जन देव और उनके चचेरे दादा भाई लंगह गुरु अर्जन देव के बाद गुरु हरगोबिंद की सेवा में भी रहे थे। भाई लंगह तो स्वर्ण मंदिर के निर्माण में गुरु अर्जन देव के साथ थे और उन पाँच सिखों में जो गुरु अर्जन देव के साथ शहादत के लिए लाहौर गए थे।

गुरु अर्जन देव पाँचवें गुरु थे। मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने उन्हें क़ैद किया था। पाँच दिन तक टॉर्चर किया। और, पाँच शिष्यों के साथ वे लाहौर गए। भाई लंगह उनमें से थे। गुरु की शहादत के बाद उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम भाई लंगह ने किया था।

बहरहाल, माई भागो ने जिस युद्ध में हिस्सा लिया था, वह खिदराना में हुआ था। मुक्तसर के युद्ध के नाम पर इतिहास में दर्ज है। तारीख़ थी 29 दिसंबर 1705। संयोग की बात है औरंगज़ेब का शासन सवा साल के भीतर ख़त्म हो गया, 3 मार्च 1707 को।

गुरु गोबिंद सिंह ने इन 40 सिख सैनिकों को चाली मुक्ते यानी आज़ाद चालीस कहकर संबोधित किया। खिदराना का नाम इनके ही संबोधन पर मुक्तसर, आज़ादी यानी मुक्ति का तालाब कहा। यह गुरु गोबिंद सिंह का आख़िरी युद्ध था।

माई भागो इसके बाद गुरु के ही साथ रही। उनके साथ वे दमदमा साहिब दिल्ली, आगरा और नांदेड़ गई, जहाँ गुरु गोबिंद सिहं ने 1708 में आख़िरी साँस ली। नांदेड़ के तख़्त हज़ूर साहिब के परिसर में बंगा माई भागो नाम से एक हॉल है। माई भागो के निवास-स्थान के रूप में। गुरु के साथ।

गुरु के बाद माई भागो कर्णाटक के जिनवारा, बिदर के पास चली गई और सिख पंथ से लोगों को अवगत कराती रही। जिनवारा की वह जगह अब तप स्थान माई भागो के रूप में जाना जाता है। एक गुरुद्वारा है।

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