गाँधी जयंती 2018 का लेख
महात्मा गाँधी भी महात्मा बनने के बाद कुछ-कुछ ऐसा ही सोचते थे। मैं, हालाँकि, महात्मा बनने की राह पर नहीं हूँ। लेकिन, उन्हीं लोगों के बारे में, उन्हीं लोगों को पढ़ने के दौरान मुझे ये ख़्याल आया होगा कि आख़िरी व्यक्ति भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि पहला। क़ायदे से तो पहला और आख़िरी में कोई भेद होना ही नहीं चाहिए।
याद है? महाभारत काल में जब कंस को पता चला था कि देवकी का आठवाँ पुत्र उसका वध करेगा तो वो इस इंतज़ार में रहने लगा कि कब देवकी के आठवाँ पुत्र हो और वो उसका क़त्ल करे। तो, वह पहले पुत्र के जन्म के बाद बिल्कुल भी परेशान नहीं था क्योंकि उसे आठवेँ का इंतज़ार था। फिर किसी ने उसे एक वृत्त बनाकर उसकी परीधि पर आठ बिंदुएं डालकर दिखाया और पूछा कि बताओ पहला बिंदू कौन-सा है। कंस की समझ में बात आ गई कि समय पहले और आख़िरी का निर्धारण नहीं करता है क्योंकि उसका फलक बहुत विशाल है।
लेकिन, इस विशालता का ही कुछ लोग हवाला देकर पहला और बाक़ी का निर्णय करते हैं। हमारे देश में तो राष्ट्रपति को पहला नागरिक भी माना जाता है। औपचारिक रूप से एक वरीयताक्रम भी जारी किया गया है जिसमें हमारे-आपके जैसे आम नागरिकों का तो नंबर भी नहीं आता है। हम इसीलिए शायद चुनावों में प्रतिनिधि नहीं वीआईपी चुनते हैं।
क़रीब 8-9 साल की उम्र तक मुझे वीआईपी का मतलब या तो पता नहीं था या एक ही मतलब पता था – वेरी इंपॉर्टेंट पर्सन, अति महत्वपूर्ण व्यक्ति। लेकिन अपने पैतृक गाँव के एक दौरे पर मेरे एक चाचा, जो संयोग से किसी सरकारी स्कूल में पढ़ाते भी थे, ने वीआईपी का एक दूसरा मतलब बताया, जो शायद उनके अनुभव से मिला होगा – वेरी इडियट पर्सन, अति बेहूदा व्यक्ति।
कई लोग जाने-अनजाने वीआईपी के दूसरे अर्थ को जीते हैं। सड़कों पर, बसों में, ट्रेनों में, हवाई जहाज़ में भी, मेट्रो में, संसद, विधान सभा और टीवी स्टूडियो, न्यूज़रूम वग़ैरह में दिखते हैं। और, अक्सर बिकते हैं। कई बार वीआईपी दर्ज़ा की ख़रीद-बिक्री का मामला भी सामने आता है। सब जानते हैं। हर बात को लिखकर दस्तावेज़ के तौर पर सहेजने की ज़रूरत नहीं है। होती भी नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए। हर पीढ़ी अपने समय के हिसाब से अपना वीआईपी कल्चर कल्चर (ग़लती से दो बार नहीं लिखा है) कर लेती है।
गाँधी शायद महात्मा इसी बात से बन गए कि उन्होंने समझ लिया था कि वीआईपी सही संकल्पना, अवधारणा नहीं है। अंतिम व्यक्ति ही असली व्यक्ति है। गाँधी में ये बदलाव धीरे-धीरे आया। और, अपनी पूरी ज़िदगी जीने के बाद भी बदलाव की लकीर पूरी नहीं पाए। इस पर एक लाइन बाद में लिखूँगा। पहले ये बात कि महात्मा बनने से पहले जब गाँधी महज मोहनदास करमचंद थे (यानी पिता की दीवानी की ख़ुमारी में थे) तो अफ्रीका में काले अफ़्रीकियों के साथ वही कर रहे थे जो भारत में अंग्रेज़ भारतीयों के साथ कर रहे थे।
मोहनदास ने अफ़्रीका के काले लोगों को हब्शी समझा, माना और कहा था। उन्हें अनसिविलाइज़्ड बताया था। भारतीयों को उनसे बेहतर, श्रेष्ठ घोषित किया था। एक लेखिका, जो अमरीका से भारत आकर जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टीवल (हिंदी में जो भी नाम हो इसका) में शामिल हुई, ने दावा किया कि मोहनदास ने अफ़्रीकी लोगों को काफ़िर बताया था। मुझे यक़ीन नहीं होता है कि मोहनदास की डिक्शनरी, जिसमें गुजराती और अंग्रेज़ी के शब्दों की भरमार रही होगी, में काफ़िर जैसा अरबी शब्द इतना हावी होगा कि अपना दुराव दिखाने के लिए इसका इस्तेमाल किया हो।
बहरहाल, मोहनदास चाहते थे कि अफ़्रीका की अंग्रेज़ी हुक़ूमत भारतीयों के साथ – जिनमें ज़्यादातर गुजराती थे – वैसा सलूक न करे जैसा काले अफ़्रीकियों के साथ किया जा रहा था। मोहनदास की दलील थी कि भारतीय सुसंस्कृत थे और मूल अफ़्रीकी असंस्कृत। मेरा ख़्याल है कि अभी तक मोहदनदास क़िताबों की दुनिया से बाहर नहीं निकले थे और कही-सुनी-पढ़ी बातों से ही दुनियादारी को परख रहे थे। उन्होंने अभी अनुभव और समझ की समझदारी से दुनिया को समझना, परखना शुरू नहीं किया था। इस दौरान, मोहनदास ट्रेन को भी बुरा मानते थे।
लेकिन, मोहनदास की क़िस्मत में महात्मा बनना बदा था सो लड़ाई मोल ले ली। ज़िद धर ली। और जब धर ली तो क़िताबें, कहावतें, सुविचार सब धरे के धरे रह गए। असली राजनीति समझ आई। जंग के पुराने क़ायदों में लगी ज़ंग दिख गई। समझ के पहिए ठोक-पीटकर सीधा किया और निकल पड़े।
ट्रेन को अभिशाप मानने वाले मोहनदास भारत को जानने ट्रेन से निकल पड़े। अपने बच्चों को अपने बड़े भाई के हवाले किया। वो समझ गए थे कि अपना बच्चा ही पहला व्यक्ति नहीं है। मेरे ख़्याल से अगर गांधी को ये बात मोहनदास रहते समझ आ गई होती तो शायद अपने बच्चे भी न पैदा करते। ख़ैर, ये हेतु-हेतु-मद की बात है। गाँधी की तलाश महात्मा पर ख़त्म हुई लेकिन आख़िरी व्यक्ति की तलाश अधूरी रही।
ये अधूरापन 15 अगस्त 1947 को महात्मा के एक विरोधाभासी काम में भी नज़र आया। इस दिन जब नेता और नीत (कुछ लोग इससे इतर अपने रंज-ओ-ग़म में भी थे) आज़ाद होने का मतलब गढ़ने का जश्न मना रहे थे तो महात्मा मौनव्रत पर थे। लेकिन अपना भाषण किसी और से पढ़वाया।
यानी, महात्मा मौन रहे लेकिन व्रत नहीं किया। महात्मा के स्तर से तो मुझे इसमें हिंसा भी नज़र आई। ख़ुद तो नहीं बोले लेकिन किसी दूसरे को बोलने को कह दिया। कहाँ चली गई थी वो गुड़ खाने वाली सीख।
शायद, आख़िरी व्यक्ति को ढूँढ़ नहीं पाने से थक गए थे महात्मा। या, आख़िरी व्यक्ति की संख्या, तादाद इतनी थी कि फ़ेहरिस्त नहीं बना सकते थे तो टूट गए थे महात्मा। कुछ तो बात थी जो न वो बोल सके और न लोग सुन सके। और उसके बाद धीरे-धीरे फ़ुरसत का अकाल पड़ता चला गया।
तो, आज कैसे याद करें महात्मा गाँधी को?