Seven Rules of Life



1) Make peace with past so that it doesn't screw up the present. And, the past includes the moment before this moment.

2) What others think of you is none of your business.

3) Time heals almost everything, give it some time.

4) Don't compare your life with others'. You have no idea what their journeys have been all about. And so, don't judge them.

5) Stop thinking too much. It's alright, perfectly okay not to know the answers.

6) No one is in charge of your happiness, except you. If you don't trust, read it again.

7) Smile. You don't own all the problems of the world. You can't own, anyway.

- Unknown

(2012)

Victory has 100 fathers

25/09/2021

Photo: Twitter

जॉन एफ़ कैनेडी का नाम सुना होगा। कल शाम से अजाने ही कैनेडी की याद आ रही थी। बराय मेहरबानी सोशल मीडिया।

साल 1961 में अमेरिका क्यूबा में एक कांड करने गया था। नौजवान फ़िदेल कास्त्रो को हटाने। चौबीस घंटे में टें बोल गए अमेरिका-प्रशिक्षित लड़ाके।
इसे Bay of Pigs कांड कहते हैं। स्पैनिश नाम है जिसका अँग्रेज़ी रूपांतर शूकरों की खाड़ी है। दक्षिण क्यूबा के इसी इलाक़े पर था अमेरिकी हमला।
पूरी ग़लती कैनेडी की नहीं थी। यह उनके पहले वाले आइसेनहावर की लकीर थी। ख़ैर, पत्रकारों को झेलने की ज़िम्मेदारी कैनेडी पर आ गई। क्रेडिट लेने के लिए कुछ था नहीं। अमेरिका की थू-थू हुई थी। वह भी मानचित्र पर एक बिंदू बराबर देश से।
इसी प्रेसवार्ता में एक पत्रकार के सवाल के जवाब में कैनेडी ने कहा था: “Victory has 100 fathers and defeat is an orphan.”
कल से ऐसा ही कुछ लग रहा था। सोचा सबके साथ शेयर कर लूँ। बिहार से निकला हूँ न। (जहाँ से ये नए आईएएस टॉपर भी निकले हैं।)
वैसे, गूगल कक्का से पता चला कि ये ख़याल पुराना है। कोई इतिहासकार थे टैसीटस। उन्होंने युद्ध विवेचना करते हुए कहा था, “This is an unfair thing about war: victory is claimed by all, failure to one alone.”
लेकिन एरिस्टोटल, हमारे अरस्तू ने भी कहा था: मनुष्य एक सोशल एनिमल है।

सबसे छोटी डरावनी कहानी की कथा

 

फ़ोटोः प्रभाष के दत्ता

नॉक यानी दरवाज़े पर दस्तक अँग्रेज़ी लिटरेचर की सबसे छोटी हॉरर स्टोरी, डरावनी या भूतिया कहानी मानी जाती है। यह सिर्फ़ दो वाक्यों की कहानी है। इसे अमेरिकी लेखक फ्रेडरिक ब्राउन ने लिखी। दूसरे विश्व-युद्ध के तीन साल बाद पहली बार प्रकाशित हुई। अगले ही साल यानी 1949 में यह दोबारा प्रकाशित की गई।

कहानी कुछ इस तरह है – "द लास्ट मैन ऑन अर्थ सैट अलोन इन अ रूम। देअर वाज़ अ नॉक ऑन द डोर..."

अर्थात् "संसार का आख़िरी आदमी एक कमरे में अकेला (अकेलेपन में) बैठा है। दरवाज़े पर एक दस्तक होती है..."

कल्पना करिए कि उस आदनी की जगह आप हैं। भयावह लगता है।

इस कहानी की प्रेरणा एक और अमेरिकी लेखक थॉमस बेली अल्डरिक की कुछ लाइनें हैं – "कल्पना करिए कि धरती के मुखरे से सारे मनुष्यों का ख़ात्मा हो गया है। सिर्फ़ एक आदमी बच गया। कल्पना करिए कि यह आदमी किसी विशाल शहर में है जैसे कि न्यू यॉर्क या फिर लंदन। कल्पना करिए कि अकेलेपन की इस स्थिति में वह तीसरे या चौथे दिन एक घर में बैठा है और उसे डोर-बेल की घंटी सुनाई पड़ती है।"

फ़्रेडरिक ने 1903 में प्रकाशित पॉन्कापॉग पेपर्स में यह लिखा था। प्रथम विश्व युद्ध के 11 साल पहले। चार साल बाद वे चल बसे। मतलब, क़रीब 45 साल बाद फ़्रेडरिक की ये लाइनें कई वैश्विक त्रासदियों – दो विश्वयुद्ध, स्पॅनिश फ़्लू नाम की एक भयंकर महामारी, आर्थिक महामंदी – के बाद ब्राउन की डरावनी कथा की प्रेरणा बनी।

ब्राउन की कहानी की पृष्ठभूमि है कि एलिएन्स, परग्रही ज़ॅन ने धरती पर जीवन समाप्त कर दिया है। कुछ स्पेसिमेन रखे हैं पार्थिव जीवों के म्यूज़ियम, ज़ू के लिए जो वे अपने ग्रह पर, संसार में बनाएँगे।

कमरे में बैठा वो आदमी संयोग से बच गया है। याद करिए, जब आपने दो वाक्यों और तीन बिन्दुओं (जिसे इलेप्सिस कहते हैं) की ये कहानी पढ़ी तो कल्पना में क्या आया था।

उस आदमी की जगह ख़ुद को दो दिन, तीन दिन, एक हफ़्ता रहना क्या भयावह लगा?

अकेलापन, एकाकीपन की ऊब से पैदा होने वाली निस्सारता भी आई होगी, डर के साथ। विचित्र-सी स्थिति है यह कल्पना के लिए।

लेकिन क्या यह ख़्याल आया कि दरवाज़ा किसी महिला ने खटखटया हो?

स्टीरियोटाइप?

लेखक ने तीन बिन्दुओं में डर और संभावना दोनों छोड़ा रखा है। नहीं?

मित्रता का मंत्र, एक जापानी कहानी

 


जब भी मैं कुछ लिखने को होता हूँ तो मेरी दुविधा होती है: हिंदी या इंग्लिश? ये वाला हिंदी में। वैसे, दिमाग़ में मूल रूप से अँग्रेज़ी में था।

जापान की एक पुरानी सीख है। चढ़ती, बढ़ती उम्र में कहीं से मिली थी। पुराने समय में वहाँ कहते थे कि किसी बेचारे का पेट भरना हो तो उसे मछली दे दो। वो ख़ुश हो जाएगा। संतुष्ट और आनंदित भी। लेकिन वो निर्भर रहेगा

अगर किसी की सच्ची सहायता करना चाहते हो तो उसे मछली पकड़ना सिखा दो। उसे मेहनत करनी होगी। लेकिन वो आत्मनिर्भर बन जाएगा। दूसरों को संतुष्ट और आनंदित कर सकेगा। फिर किसी और को आत्मनिर्भर भी बना सकेगा।
मैंने इसमें एक मानुषी पड़ताल जोड़ दी। अपने लिए। दोस्ती के लिए। सांसारिक सम्बन्ध के लिए।
आप जिसे मछली देते हैं, वो आपके पास आता रहेगा। उसकी ज़रूरत है। संभव है कि कुछ समय बाद वो इसे अपना अधिकार समझने लगे। और, आपको एक प्रकार का क़र्ज़दार। ये चेतावनी है। तय आपको करना है।
दूसरी स्थिति हो सकती है कि जिसे आपने मछली पकड़ना सिखाया, वो फिर कभी आपके पास न आए। उसकी तमाम उम्र की ज़रूरत पूरी हो गई। आपके लिए, नेकी कर, दरिया में डाल।
लेकिन कुछ मछली पकड़ने वाले आपके पास फिर आएँगे, पूरी तरह सीख लेने के बाद भी। ये सच्चे हैं। आप दोस्ती कर सकते हैं। सुकून वाली।
मैं मछली पकड़ने वालों के लौटने के इंतज़ार में रहता हूँ। और, हर सिखाने वाले के पास लौटकर जाता हूँ।

शांतिपाठ, बृहदारण्यक का सामाजिक सौहार्द्य

 

(Ducks in Adhwara river, Aahil, Darbhanga. (Photo: Prabhash K Dutta)

धर्म में मेरी रुचि है। लेकिन मैं शायद धार्मिक नहीं हूँ। यह संबंध जैसा किसी सरकारी दफ़्तर में जाने पर जो आभास होता है उसके विपरीतमूलक है। वहाँ कई कार्मिक होते हैं लेकिन उनमें से कई की कर्म में रुचि नहीं होती। वैसे ही मेरी धर्म में रुचि है लेकिन मैं अमूमन धार्मिक नहीं होता हूँ। इसलिए शांतिपाठ पर लिखना मेरी अधर्मिता है जो धर्म में रुचि की हठधर्मिता से उपजी है। 

शांतिपाठ पहले भी कई बार पढ़ा था। इस शनिवार एक बार फिर पढ़ा। कई बार ख़ाली समय काम आ जाता है, अगर मोबाइल फ़ोन छोड़ पाने का जतन कर लिया है तो। पढ़ते ही पटना कॉलेज के दिन और एक-आध सोच याद आ गई। पहले शांतिपाठ के शब्द, जैसा कि मूल उपनिषदों में से एक –- बृहद् अरण्यक (अर्थ, विशाल वनों से संबंधित) –- से मिलता है।

ऊँ पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते। पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् एव अवशिष्यते।।

ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

मुझे संस्कृत नहीं आती। इसका शाब्दिक अर्थ आमतौर पर मंत्र को समझाने वाली क़िताबे नहीं बताती। वे इनकी व्याख्या करती हैं। हम व्याख्या ही समझते हैं। इसमें कई बार मूल शब्दार्थ छूट जाता है क्योंकि इसे समझाने वाला अपनी समझ ही देने लगता है। मसलन, हम अक्सर देखते हैं कि लोग महात्मा गाँधी के बारे में (व्याख्या) ख़ूब पढ़ते हैं, गाँधी को नहीं।

हालाँकि गाँधी नें धुआँधार लिखा है। तब की राजनीति पर लिखा है तो मूँगफली के उपयोग, लाभ पर भी लिखा है। गाँधी की व्याख्या पढ़ने वालों को मैंने अक्सर गाँधी के बारे में ग़लत राय बनाते ही पाया है। जिन्होंने गाँधी को पढ़ा है, वे बेहतर समझते हैं। यही बात गाँधी के क़ातिल नाथूराम गोडसे के बारे में भी है। गोडसे का बयान क़िताब की शक्ल में मौजूद है लेकिन लोग किसी की व्याख्या पढ़कर अंदाज़ा लगाते हैं। इसीलिए मेरा मानना है कि भूख की शमन के बाद समझ की स्वतंत्रता एक मनुष्य का पहला अधिकार है, और यही पहला कर्तव्य भी है।

इसी संदर्भ में शांतिपाठ का शब्दार्थ जानना पहली ज़रूरत है। व्याख्या तो फिर भी कहीं भी मिल सकती है। अपने भीतर भी। चूँकि मुझे संस्कृत नहीं आती, मैंने गीताप्रेस के एक संस्करण की सहायता ली जो 1960 के दशक में छपी। हम वैसे भी प्राचीनता को प्रमाणिकता के समकक्ष समझते हैं। अब शांतिपाठ का शब्दार्थ।

ऊँ पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते। पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् एव अवशिष्यते।।

ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

ऊँ को कॉस्मिक साउंड, ब्रह्म ध्वनि मानते हैं। कई लोग इसे ईश्वर का आह्वान भी मानते हैं। मूलतः यह एक अपरिभाषित सार्वभौमिक आध्यात्मिक आह्वानिक ध्वनि है। यह एक समर्पण भी है। इस शांतिपाठ में मुझे ऐसा ही लगा।

अर्थ –- वह सब प्रकार से पूर्ण है, यह भी पूर्ण है क्योंकि उस पूर्ण से ही यह पूर्ण उत्पन्न हुआ है, पूर्ण के पूर्ण को निकाल लेने पर पूर्ण ही बचता है।

यह है शाब्दिक अर्थ।

वह इश्वर हो सकता है। परब्रह्म भी कहते है। यह संसार के लिए हो सकता है। हमारे, आपके लिए हो सकता है। लेकिन तर्क यह है कि यह वह से निकला है। वह पूर्ण है, इसलिए यह भी पूर्ण है। इनके आपस का संबंध ऐसा है कि उस पूर्ण (वह) से इस पूर्ण (यह) को निकाल लेने पर भी दोनों पूर्ण ही रहते हैं।

यानी, वह किसी लोटे का पानी है कि एक गिलास निकाल लिया तो कम दिखने लगा, बल्कि समुद्र है जहाँ से एक बाल्टी पानी निकाल लेने पर भी दोनों का अपना पूर्ण अस्तित्व है। हालाँकि, लोटे और समुद्र का बिम्ब शांतिपाठ को समझने का सही चित्र नहीं है। वास्तव में यह कुछ ऐसा है कि जैसे यह यूनिवर्स हरेक ऐटम से बना है और दोनों ही लगातार पूर्ण हैं। ऐटम दूसरे ऐटम से मिलकर भी पूर्ण है, और यूनिवर्स का हिस्सा है। नष्ट होकर भी किसी न किसी रूप में पूर्ण है। एक ऐटम होगा ही। क्वार्क के रूप में भी अस्तित्व पूर्ण है और यूनिवर्स का हिस्सा है। दोनों पूर्ण हैं।

शांतिपाठ यही कहता है। मैं, आप, और वे सभी वह के साथ पूर्ण हैं। तीन विधियों से शांति बनी रहे। इस आह्वान के साथ शांतिपाठ पूरा हो जाता है।

साहित्यक रूप से शांतिपाठ बृहद् अरण्यक उपनिषद् के पाँचवे अध्याय के प्रथम (शतपथ) ब्राह्मण (वेद् की व्याख्या करने वाले ग्रंथ) में है। शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद से संबद्ध है। बाद के ग्रंथों में शांतिपाठ की कई और शब्दावली मिलती है। अलग-अलग पूजा के लिए अलग-अलग शांतिपाठ। लेकिन प्राचीनता ही प्रामाणिकता को आधार बनाकर बृहद् अरण्यक के शांतिपाठ को ही मौलिक मान लेते हैं।

सभी काम से पहले शांतिपाठ की प्रस्तावना की गई है। शायद भारतीय मनीषी ने एक प्रीएंबल दिया था देश की जनता को जिसके ज़रिए उन्हें इस बात का आभास रहे कि वे एकात्म का हिस्सा हैं। ऐसा कुछ न करें जिससे किसी को क्लेष हो और शांति भंग हो।

मैं अगली बार शांतिपाठ सुनूँगा या पढ़ूँगा तो इसका ध्यान रखूँगा। चाहें तो आप भी इस अर्थ में शांतिपाठ को अपना सकते हैं बजाए यह मानने के कि शांतिपाठ करने, कराने से आपके घर में कोई दूसरा (ईश्वर ही क्यों न हों) शांति ला सकता है या ला सकती है।

मार्टर या शहीद का विरोध क्यों

India Gate was built to honour 84,000 soldiers who fought and laid down their lives for British India in World War-I and the First Afghan War. (Photo: Prabhash K Dutta)

कुछ साल पहले की बात है। शब्दों को लेकर पत्रकारों और दूसरे लिखे-पढ़े लोगों में भ्रांतियों पर एक वरिष्ठ मित्र से बात हो रही थी। मुद्दा यह था कि कितने ही सामान्य बोल-चाल के शब्द हम ग़लत रूप में प्रयोग करते हैं। मेरे वरिष्ठ मित्र पत्रकारिता छोड़ चुके थे और इस बात से बहुत चिंतित थे कि पत्रकार जो कि भारत में सबसे ज़्यादा पढ़े जाने लोग हैं ग़लत तरीक़े से शब्दों का प्रयोग और उच्चारण करते हैं।

उदाहरणों में, मैंने ख़िलाफ़त शब्द का ज़िक्र किया। मुझे थोड़ी हैरानी हुई कि मेरे वरिष्ठ मित्र, जो भाषा के अच्छे जानकार हैं, ने कभी इस बात पर ग़ौर नहीं किया था कि ख़िलाफ़त शब्द का मुख़ालिफ़त से कोई लेना-देना नहीं हैं। ख़िलाफ़त शब्द मजहबी है। ख़लीफ़ा से संबंधित है। 

लेकिन टीवी वग़ैरह में मुख़ालिफ़त की जगह अक्सर ख़िलाफ़त का प्रयोग होता रहा है। मैंने न्यूज़रूम में लोगों को यह दलील देते हुए भी सुना है कि चूँकि लोग अब ख़िलाफ़त को मुख़ालिफ़त ही समझते हैं, इसलिए इसी शब्द का प्रयोग करते रहना चाहिए। 

इसे ही शायद भाषाविद शब्दों का रूढ़ होना कहते हैं। मैंनेे पहली बार अंग्रेज़ी के रैशनल शब्द के बारे में ऐसा सुना था। कॉलेज़ के दिनों में। मार्टर या शहीद शब्द के रूढ़ होने को लेकर मेरा निजी विरोध बहुत इमोशनल है।

अंग्रेज़ी का शब्द मार्टर (martyr) हिंदी-उर्दू में शहीद है। नेता लोग, और आम जन भी, मार्टर और शहीद शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं। गर्व के साथ। कुछ को तो इतना गर्व है कि जो मार्टर या शहीद शब्द की असली पहचान जानते हैं और देश की सीमा पर या पुलिस ड्यूटी करते हुए अपनी जान गँवाने वाले जवानों, सिपाहियों के लिए मार्टर या शहीद नहीं इस्तेमाल करते, उनसे अदावत करते हैं। 

मुझे भारत के सैनिकों, जवानों, सिपाहियों, बहादुरों के लिए शहीद या मार्टर शब्द का प्रयोग इंसल्टिंग, अपमानजनक लगता है। 

मार्टर शब्द का अर्थ क्या है? 

इसके लिए इसकी शुरुआत को समझना पड़ेगा। ग्रीक-लैटिन मूल से निकला शब्द है मार्टर, जिसका ्सामान्य अर्थ होता था विटनेस, साक्षी। इसका व्यावहारिक अर्थ होता था, रिलीजन यानी मजहब के लिए, उसकी मुख़ालिफ़त करने के बजाय कष्ट या मृत्यु स्वीकार करना। 

आम तौर पर डिक्शनरी में मार्टर की परिभाषा कुछ इस तरह से होती है -- "a person who is killed or who suffers greatly for a religion, cause, etc."

उदाहरण में अमूमन यह मिलेगा -- the early Christian martyrs

रोमन संस्कृति में मार्टरडम यानी शहादत को नोबल डेथ यानी अच्छी मौत कहा गया है। जो पहला संदर्भ मार्टर का मिलता वह यहूदियों के शहीद होने का है। ईसा पूर्व दूसरी सदी में, यहूदी रोमन आक्रमण और उनकी मजहबी मान्यताओं को अपने बिलीफ़ सिस्टम की क़ीमत पर अपनाने को तैयार नहीं हुए और इसके बदले सज़ा पाई।

ब्रिटानिका एनसाइक्लोपीडिया के मुताबिक़, मार्टर एक व्यक्ति है जो अपने मजहब को नकारने के बजाय स्वैच्छिक रूप से तक़लीफ़ सहते हुए मृत्यु को अपना लेता है। यहूदी मजहब से कई उदाहरण हैं जो प्री-क्रिश्चियन हैं। अब्राहम, आइज़ैक और डैनियल की कथाओं में शहादत का यही भाव है। ये सभी नज़ारथ के जीसस के जन्म के पहले के हैं। 

सैबथ की अवहेलना से बेहतर मार्टरडम यानी शहादत को समझा गया। सैबथ यहूदी समाज में (बाद में जिन्हें अब्राहमिक रिलीजन कहा गया, उन सबमें) आराम और प्रार्थना का दिन है। यहूदियों में यह शनिवार होता था। क्रिश्चियनों में रविवार। इस्लामियों में शुक्रवार।

ईसा पूर्व दूसरी सदी के कई उदाहरण हैं। एक उदाहरण में, निष्ठावान यहूदी अपने बच्चों के खतना के लिए शहादत स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे। एक रब्बाई ने खुले तौर पर इसकी शिक्षा देने के लिए शहादत चुना था। ये सभी अपने समय की बहुत ही इमोटिव घटनाएँ थी। 

मार्टर निस्संदेह मजहबी अवधारणा है। और, शहादत जिहाद में होता है। भारत ऐसा नहीं है। भारत न तो मजहबी अवधारणा है और न ही जिहाद करता है।

भारत के संदर्भ में एक और शब्द रूढ़ बन गया। धर्म। भारत में धर्म सामान्यतया ड्यूटी था। रिलीजन नहीं था। इसके लिए सबसे क़रीबी शब्द पंथ या पारलौकिक विश्वास का पंथ हो सकता है। रिलीजन के अर्थ में, भारत का कोई सैनिक या आम नागरिक देश को धर्म नहीं मानता। राजनीतिक तौर पर भारत एक ईकाई है। लेकिन भारतीयों के लिए उनकी पहचान। यह आइडेंटिटी की बात है।

अगर मार्टरडम, शहादत की समझ के साथ चलेंगे तो कल को पाकिस्तान से युद्ध हो जाए तो भारत के मुसलमान सैनिक पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़ेंगे नहीं। पाकिस्तान तो घोषित तौर पर इस्लामी उम्मा है और भारत के ख़िलाफ़ जिहाद करता है। यदि ख़ुदा-न-ख़्वास्ता नेपाल या भूटान से युद्ध हो जाए तो हिंदू, बौद्ध सैनिक लड़ने से इनकार कर देंगे। चीन के साथ भी ऐसी ही बात होगी। सिख सैनिकों को तय करना होगा कि जिहाद में किसी के साथ होना है या नहीं। 

भारत के संबंध में जिहाद और शहादत अपमान है। उन सैनिकों का अपमान है जो अपनी जान की बलि देकर देश और देश के लोगों की रक्षा, सुरक्षा में रहते हैं। सियाचिन में, कराकोरम, गलवान में टिके सैनिक अपने देवता को याद भले करते हों, अपनी जान उनके लिए जोख़िम में डाले नहीं खड़े हैं।  उसके लिए इसकी ज़रूरत भी नहीं है। वे भारत के लिए, अपनी पहचान के लिए मुस्तैद हैं।

किसी दुश्मन के आक्रमण को नाकाम करते हुए अगर उनके "मारे जाने" की बात पढ़कर, सुनकर अच्छा नहीं लगता है और दूसरे शब्द चाहिए तो बेहतर शब्द तलाशना चाहिए न कि मार्टर और शहीद जैसे "अपमानजनक" उपाधि से काम चलाना चाहिए। वैसे भी, जिस भारत का संविधान सेकुलर देश की घोषणा करता हो, उसकी रक्षा करने वालों के लिए मजहबी उपाधि देना तो नाइंसाफ़ी भी है। 

शब्द चाहिए तो बलिदान, बलिदानी का प्रयोग कर सकते हैं। बलि, सुना है, शुरुआत में स्वैच्छिक दान होता था जो राज्य-समुदाय की रक्षा करने वालों के गुज़ारे के लिए देते थे। बाद में, देवताओं के लिए दिया जाने लगा ताकि वे रक्षा कर सकें।

विचार की स्वतंत्रता के हक़ से पहले, समझ की स्वतंत्रता पर अधिकार ज़रूरी है।

Why Christmas is merry not happy

Photo taken in 2020: Sindhustan/Prabhash K Dutta

Prabhash K Dutta

Christmas was not a Christian festival when I was a kid in Siwan, Bihar. It was a holiday dedicated to Isa Maseeh. Later, I discovered he was Jesus and the founder of Christianity. Much later, I got to know that there are some who, born in Christian families, challenge the line that Jesus of Nazareth was the founder of Christianity. 

History of everything has been re-written so many times that nobody could be sure what actually happened and how. It is mostly an article of faith. To me, I know that people believe to know that Jesus was the source of Christianity. And, Christmas is dedicated to Jesus to mark his birthday, though some argue that December 25 could not have been his real birthday. Article of faith.

Back in Siwan, we said Merry Christmas. It was not the time when we said Happy Diwali or Happy Holi or Happy Eid. Eid 'Mubarak' was told to Muslim friends, some of whom got upset if the words were not told to them for they said Holi Mubarak to others. It was a complex thing. It did not look like that back then. The ways of the world. Many streets criss-crossing with great fluidity constantly.

As an adult, perhaps during my college days, I shifted to Happy Christmas on my volition [omitted 'own' deliberately; if something is mine, do I need to superfluous (using as verb) it with 'own'?]. 

Many years later, I realised that the British royal message is Happy Christmas and not Merry Christmas. I was told that Merry Christmas is an American thing.

What do you do when you feel you have free time? My guess, you resolve issues that you have left unaddressed in your mind. I did the same once with Merry versus Happy for Christmas. Interesting things popped up.

Though I could not ascertain whether it was Happy or Merry Christmas more than 500-600 years ago. But I found write-ups quoting letters, cards and literature dating this period to indicate how Merry out-competed Happy to accompany Christmas. 

But before I plagiarise those write-ups, here is a clarification. I don't remember if I ever looked for 'happy' and 'merry' in dictionaries. My understanding is based on perception that came with these sounds since childhood. Happy is in what we call heart. Merry is more in behaviour. These two words may have the same difference as Sanskrit-Hindi words 'aanand' and 'ullaas'. 

The first reference to Merry Christmas is said to have been recorded in a postcard written by an English Catholic Bishop in 1534. His name was John Fisher. He wrote to then chief minister in the royal government of King Henry VIII -- Thomas Cromwell.

John Fisher wrote to Thomas Cromwell: "And this our Lord God send you a mery [merry] Christmas, and a comfortable, to your heart's desire."

A number of references has been made to a 16th century carol popular in England: "God Rest You Merry, Gentlemen". 

This carol is said to have originated in South-West England. It was first published in its present form in 1760. 

Here, God Rest You Merry means May God Keep You 'in celebratory or joyous mood'. More in behaviour than simply in heart. This reference has been used to emphasise that Merry was used in connection with low-level people who went mad in celebration tossing away the high-class royal mannerism represented by Happy.

South-West England, referred above, is also the birthplace of a famous carol often played in shopping malls every year: "We wish you a Merry Christmas". But this carol appeared in printed form only in 1935.

I found similar references hinting that Happy Christmas might have been more common form of expression before Merry made Christmas a mass/low-level celebration. Those making merry were picturised in words as dancing, lustful eating and playing games in a drunken state. 

This argument has been extended to 20th century practice of the English royal family. They wish Happy Christmas not Merry Christmas.

Year 1843 appeared in my search as the watershed moment for Merry Christmas as an expression of greetings on Christmas. 

Somebody called Sir Henry Cole sent a Christmas card to someone. He wrote on the card: "A Merry Christmas and a Happy New Year to You."

I don't know how much influence Cole had on English society and colonial people in faraway lands. But another source is certainly influential. He was Charles Dickens. His 'A Christmas Carol' was published in 1843. His characters said 'Merry Christmas' 21 times in the Carol.

Finally, the royal English connection. King George V was the first in the English royalty to put out a Christmas message. The year was 1932. He wished his subjects a “Happy Christmas”. Queen Elizabeth II has continued to wish her subjects "Happy Christmas". Remember merry is for the masses and happy for the classes!

Then came the American influence. America does many a thing that contrast the English. They picked Merry over Happy on Christmas. I found one Australian woman who identified self as Teresa, born in 1944, saying: [please read a little longish quote]

“I have always said ‘Happy Christmas’. Nobody in my family of origin ever said ‘Merry Christmas’. Not my grandparents, uncles and aunts, or cousins either. I was born in Australia in 1944 and I don’t think I ever heard the term ‘Merry Christmas’ until much, much later in my life.”

“I always associated it with Americans - I don’t know if that was a correct assumption or not. These days everyone around me says ‘Merry Christmas’ but I still say ‘Happy Christmas’.”

“My grandchildren think it’s hilarious and a bit weird. ‘Merry Christmas’ makes me think of drunken revellers ‘making merry’ - a not very appealing picture to my mind. Call me old fashioned if you like, but I’m going to continue saying ‘Happy Christmas’.”

Australia was an English colony.

That's all on Merry versus Happy Christmas. But before I put the final full stop here, two more things that I found.

1. Christmas used to be a 12-day festivity of revelry during/till what is called the Middle Ages.

2. Celebrating Christmas was banned in 17th century in many countries. It was not a holiday. Puritans in the UK and America banned it considering licentious and a hangover of the pagan practice not approved by Bible. It made a comeback in the 19th century with Merry Christmas and one-day holiday that launched a series of season's greetings extending up to the New Year day.

So, as one person wrote somewhere: Happy Merry Christmas!



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