फ़ादर्स डे का फ़साना

 2019 का लेख


जून की 16 तारीख़ को इस बार फ़ादर्स डे था। ये बड़ा दुविधाप्रद विषय है मेरे लिए। कई सोच गडमड हो जाते हैं ऐसे किसी दिन के कॉन्सेप्ट में। एक ही दिन क्यों? बाक़ी दिन क्या उनका सम्मान नहीं होना चाहिए? बाक़ी दिन क्या उनका अवलोकन नहीं किया जाना चाहिए? बाक़ी दिन क्या उनसे अपनी माँगे नहीं मनवानी चाहिए? बाक़ी दिन क्या उन्हें कष्ट में रखने का हक़ है? या, हम ये मान चुके हैं कि बाक़ी दिन वे कष्ट में ही रहते हैं इसलिए उनके लिए एक दिन फ़ारिग़ कर उन्हें ख़ुश करना चाहिए?

वैसे मेरे डैडी ये पोस्ट नहीं पढ़ रहे होंगे। उन्हें शायद फ़ादर्स डे भी नहीं मालूम हो। वे फ़ेसबुक क़ौम से नहीं हैं।

दुनिया के सारे ही बच्चे बिना अपनी मर्ज़ी के दुनिया में आते हैं। लेकिन ज़्यादातर पुरुष अपनी मर्ज़ी से फ़ादर बनते हैं। वे तय करके फ़ादर बनते हैं। उस दिन के बाद से हर दिन उनका फ़ादर्स डे है।

डिक्शनरी के अर्थ के हिसाब से देखा जाय तो फ़ादर का मतलब उस शख़्स से है जिसने किसी नयी चीज़, लीक की शुरुआत की हो। हमारा जीवन एक नयी शुरुआत है। हर जीवन एक नयी शुरुआत, नयी उम्मीद है कि कल आज से बेहतर होगा, बनाया जायेगा। हर फ़ादर के अंदर एक बेहतर भविष्य की कल्पना होती है। चाहत होती है। अपने लिए नहीं। वो मान चुका होता है मन ही मन कि वो अतीत का हिस्सा और उसी का प्रतिनिधि है। वो तो उस नए जीवन के बेहतर भविष्य के लिए उसका सर्जन करता है। किसी को अगर पक्का यक़ीन हो कि भविष्य बेहतर नहीं, कमतर होने वाला है तो कभी अपने बच्चे को जन्म नहीं देगा/लेने नहीं देगा। पिता बच्चे को नर्क में नहीं झोंक सकता। बेहतर भविष्य ही उसका संबल है, पिता बनने की।

तो आज जब आप अपने जनक को जब हैप्पी फ़ादर्स डे बोले, कहें, लिखें, विश करें तो ज़रा सोचें कि क्या आपने उनकी चाहत पूरी की है। कहीं उनकी उम्मीद को नाउम्मीदी में तो नहीं तब्दील कर दिया है?

इसलिए भी सोचिए कि हो सकता है कि आप अपने पिता के साथ रहते हों और उनके भीतर उस भविष्य की कल्पना पल-पल टूट रही होगी।

इसलिए भी सोचिए कि आप अपने पिता से दूर रहते हों/हो गए हों और उस भविष्य की कल्पना को भूल गए हों। और, आपकी भूल की वज़ह से कोई बूढ़ा या बुढ़ापे की ओर बढ़ता हुआ एक व्यक्ति दुखी हो रहा हो मन ही मन।

इसलिए भी सोचिए अगर किसी के पिता उनसे दूर हो गए हों/ एक दूसरी दुनिया में हों, और आपको उनका न रहना सालता हो क्योंकि आप अब बस एक पिता हैं, किसी पिता के बेटे नहीं। उस बेहतर भविष्य की कल्पना के तार टूट रहे होंगे।

कल और आज के आईने में तरक़्क़ी



पहले के पढ़े-लिखे लोगों का जीवन आसान था। इसमें अब कोई दो राय नहीं है। उनके जीवन का सबसे बड़ा, ज़्यादातर के लिए एकमात्र, उद्देश्य होता था एक नौकरी पा लेना। उसके बाद नौकरी ही जीवन। शादी अपरिहार्य। हसरत के नाम पर बच्चे और उनकी शिक्षा, नौकरी और शादी। बस इतना सा ख़्वाब होता था।

पढाई, लिखाई, समाज की चौकीदारी, नेताओं का विश्लेषण, एक्टिवोज़म, लेखन, कविताई वग़ैरह के लिए एक अलग जुझारू समुदाय होता था।

आज वक़्त बदल गया है। अब टीवी और एफ़एम के अतिरिक्त ख़रीदा हुआ फ़्री डेटा, फ़ेसबुक और ट्विटर, टिकटॉक, हेलो जैसे अगणित सोशल मीडिया के पटल हैं। इनसे दूर रहना ग़ुनाह है। और, साथ रहना चुनौती। हर किसी को स्वीकार करना है।

टीवी चैनलों के एंकर की तरह हर किसी को सर्वज्ञ रहना है, नहीं तो दूसरा जीत जायेगा। समानता के अधिकार के प्रति जागरूकता में हमसे आगे कोई निकल जाए तो समाजवाद हार जायेगा। बुद्ध, गाँधी और मार्क्स पैदल हो जाएंगे। हम उनके रक्षक हैं।

क्रिकेट, टेनिस, फुटबॉल, एथलेटिक्स, स्पेस साइंस, सोशियोलॉजी, साइकोलॉजी, क्लाइमेट चेंज, बाढ़, सूखा, अकाल, किसान, पेप्सी, टाटा, संविधान, कोर्ट, घर, कंक्रीट सबपर एक समान वरदहस्त होना है।

आज हमें लेखक, कवि, विचारक और विशारद सब एक साथ इकट्ठे बनने की चुनौती का अकेले सामना करना है। हम पर लेखक बनने का उतना ही दबाव है जितना कवि बनने का या जितना बजट समझने, समझाने का या एक्टिविस्ट बनने का।

बेटा, बेटी, भाई, बहन, पिता वग़ैरह बनने की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी आउटसोर्स किये जा रहे हैं। मजबूरी है। एक ही जीवन है। इसी में दुनिया भी देखनी है।

पुराने साथी, नए सहयोगी, कल का छोकरा सबके सब तुर्की, लंदन, न्यूजीलैंड, फ़िनलैंड घूमकर आ गए। अमेरिका, बैंकॉक, मलेशिया आदि आदि में गिने जाने लगे हैं। गोवा, शिमला, नैनीताल, सिक्किम तो नवदलित चेतना वालों के लिए है। और, धूमने इसलिए नहीं जाना है कि हमारा मन है बल्कि इसलिए कि फेसबुक सरीखे पटलों पर लोग धुआँधार पोस्ट ठेल रहे हैं। समाजवाद हार जायेगा अगर हम न जा सके। फिर सरकार को कोसना है। सिस्टम को गरियाना है। कमियाँ गूगल करनी है और चस्पा देना है। कुछ नया करना है। पुराना तो सब हो चुका है।

तनाव है, चार से छः इंच के एक छोटे से कंप्यूटर में/पर/द्वारा/से। पहले के पढ़े लिखे लोगों का जीवन आसान था। कम लिखने पढ़ने वाले उनको अपने से बेहतर समझ उनकी राय पर अमल कर जीवन गुजार देते थे। उन्हें समाजवाद का ज्ञान नहीं था। उनपर पूँजीवाद का कब्ज़ा था तब भी लेकिन गिरफ़्त का अंदाज़ा नहीं था।

कर्म उँगलियों से ज़्यादा पैरों की ताक़त और हाथ के मशल्स से किया जाता था। नींद ज़्यादा आती थी। सुकून ज़्यादा था। माने, पहले के पढ़े लिखे लोगों का जीवन आसान था।

कैसे सो जाते हैं हम, और जगते कैसे हैं?

 

चैन की नींद सुख का द्वार है। (Photo: National Health Portal/Twitter)

18 अप्रैल 2021 का लेख

यह सवाल मेरे लिए बड़े अचंभे का रहा है कि नींद में हम जब मृतप्राय होते हैं तो जग कैसे जाते हैं। कौन सी शक्ति हमें जगाती है? उसी गाने, टीवी, ट्रेन आदि के शोर से कभी आप जग जाते हैं और कभी आप इनके बीच चैन से सो रहे होते हैं। ऐसा कैसे हो जाता है? मतलब, आप जब भी गोबी खाते हैं तो उसका स्वाद अमूमन एक जैसा ही लगता है। सुबह, शाम, प्लेट में, थाली में, स्टील, प्लास्टिक, पेपर के बर्तन में, पार्टी में, घर में कहीं भी आप खाएँ, रेसेपी एक है तो स्वाद वही रहेगा। आप तब भी कहेंगे कि वह गोबी ही है। फिर ऐसा क्या होता है कि वही गाना कभी आपको सुला देता है, और जगा भी देता है। ट्रेन की आवाज़ से नींद उड़ जाती है और ट्रेन में सो भी जाते हैं?

सब का कंट्रोल दिमाग़ में है। और, यह विकासक्रम है। इवोल्यूशन।

दिमाग़ सबसे जटिल कंप्यूटर है। बिजली से चलता है। चार-पाँच मूल चीज़ें हैं जो जानने की है, दिमाग़ से नींद के कनेक्शन की।

प्रीफ्रॉन्टल कॉर्टेक्स, शायद इसे अग्र मस्तिष्क कहते हैं। इसे आप दिमाग का हेडक्वार्टर भी कह सकते हैं। हमारी भौवें जहाँ मिलती हैं उसके ठीक ऊपर की जगह पर होता है।

दूसरी चीज है, सुप्राकायज़मेटिक केंद्र। मैं सुप्राकायज़मेटिक की हिंदी नहीं बता सकता। यह मस्तिष्क के बीच में होता है। यही वह केंद्र है जो अंदरुनी घड़ी, सर्काडियन रिदम में चाबी भरता है।

तीसरी चीज़ है, पीनियल ग्लैंड। काफ़ी समय से यह ग्रंथि वैज्ञानिकों के लिए रहस्य रहा है। नींद की सूचना के लिए यह एक प्रोटीन जिसे मिलैटोनीन कहते हैं छोड़ता है। मिलैटोनीन एक मैसेंजर है जो हमें सूचना देता है कि नींद लेने का समय हो चुका है।

चौथी चीज़ है, थैलामस। यह भी एक ग्लैंड है। इसे आप दिमाग़ का सेंसरी गेटवे, संवेदना द्वार या संवेदनपाट कह सकते हैं। आप किसी बात को देखकर, सुनकर, सूँघकर, छूकर क्या और किस रूप में समझते हैं, यह बात इसी पर निर्भर करता है। यही थैलामस आपको सपने दिखाता है। जब आप दौड़ रहे होते हैं लेकिन असल में पैर बिस्तर पर ही होता है।

पाँचवी चीज है, एडीनोसीन। यह हमारी बॉडी में बनती रहती है। जिन्होंने बायलॉजी पढ़ी है, उन्होंने एटीपी का नाम भी सुना होगा। इसे कोशिका यानी सेल की ऊर्जा मुद्रा या एनर्जी करेंसी भी कहते हैं। जितनी देर आप जगे रहते हैं एटीपी आपके दिमाग़ में एडीनोसीन बनाता रहता है। इसकी बढ़ती मात्रा नींद का असली कारण है। आपको कितनी नींद आ रही है, यह बात आपके अंदर किसी वक़्त पर कितना एडीनोसीन है, इसी पर निर्भर करता है। जिन्हें नींद नहीं आती, डॉक्टर कई बार उन्हें एडीनोसीन की दवाई देते हैं।

****

होता यह है कि जितनी देर आप जगे रहते हैं, ख़ून में मिलैटोनीन की मात्रा बढ़ती जाती है। यह आपके शरीर में एक चीख़ जैसी है कि रात हो गई है, सो जाओ। उस चौकीदार के बिल्कुल उलट जो रात को जागने के लिए आवाज़ें मारता है। मिलैटोनीन आपको सुलाता नहीं है। यह सुप्राकायज़मेटिक केंद्र का संदेशवाहक है और आपसे बस सो जाने को कहता है। सुबह अंदरुनी घड़ी के मुताबिक मिलैटोनीन की मात्रा शरीर में कम हो जाती है। अब यह आपको सोने के लिए नहीं कहता।

लेकिन आप रात भर जगे रहे हों तो आपको सोने की चाह होती है। इसकी वजह एडीनोसीन है। आपको सुलाने का काम भी एडीनोसीन का ही है। जैसे-जैसे एडीनोसीन की मात्रा बढ़ती है, वैसे-वैसे नींद-दबाव भी बढ़ता है। आम तौर पर अँधेरा होने के तीन घंटे के बाद इसकी मात्रा इतनी हो जाती है कि आप कहते हैं कि नींद आ रही है। आप सोना चाहते हैं।

हो सकता है कि आप अभी न सोएँ, लेकिन विकासक्रम ने शरीर को ऐसा बनाया है कि आपके जगे होने पर भी कई हिस्से सुस्त पड़ने लगते हैं। आंशिक नींद। जैसे ही आप सोते हैं एडीनोसीन की मात्रा दिमाग़ में घटने लगती है। जब नींद पूरी होती है तब तक एडीनोसीन लगभग ग़ायब। और, आप जग गए।

यह एक बैरोमीटीर की तरह है जिसमें दिमाग़ आपके जगने को मापता है, और उसके मुताबिक़ नींद की ज़रूरत तय करता है। बहुत ही मज़ेदार गेम चलता रहता है दिमाग़ के भीतर निद्रा और जागृति के बीच। अभी भी जब आप इसे पढ़ रहे हैं। जो नहीं पढ़ रहे, उनके मस्तिष्क में भी। सुबह तक सोने के बाद इस एडीनोसीन की मात्रा इतनी कम हो जाती है कि नींद-दबाव ख़त्म हो जाता है।

****

जब आप सो रहे होते हैं तो थैलामस तय करता है कि कौन सी सूचना, संवेदना आपके लिए ज़रूरी है। वह अग्र मस्तिष्क को जाने वाली सूचनाओं को फ़िल्टर करता है। इसीलिए आप गाने सुनते हुए सो जाते हैं। थैलामस एक समय के बाद गाने की ध्वनि को अग्र मस्तिष्क तक नहीं जाने देता।

अक्सर बच्चों के साथ आपने देखा होगा कि अख़बार के पन्ने पलटने से वे जग जाते हैं लेकिन कूकर की सीटी से नहीं। गर्भ में रहने के दौरान उनका मस्तिष्क कूकर की सीटी को सुनता, समझता रहता है। जानता है कि ये इतनी ज़रूरी नहीं कि नींद छोड़ी जाए। अख़बार का पन्ना एक ख़तरा हो सकता है। नई आवाज़ है। वही बच्चे बाद में उस अख़बार से भी नहीं डरते। सोए रहते हैं।

अमूमन बच्चों के नाम जन्म के एक हफ़्ते में रख दिए जाते हैं। लेकिन दिमाग़ के लिए वह भाषा अनजान होती है। थैलामस उसको छानकर बाहर कर देता है। रिपीट होता है। बिना किसी मतलब के। लेकिन जब भाषा समझ आती है और यह पता चलता है कि यह शब्द तो उसी मस्तिष्क के लिए है तो नींद में भी आवाज़ लगाने पर थैलामस दिमाग़ के हेडक्वार्टर को सूचना जाने देता है। आप जाग जाते हैं।

बच्चों से एक उदाहरण और। बड़ों की तुलना में। अगर आप सो रहे हैं और कोई आपको थपकी दे तो आप जग जाते हैं। तक़रीबन हर बार आपकी नींद खुल जाती है। लेकिन जब बच्चों को सुलाना होता है तो हम उन्हें थपकी देकर सुलाते हैं। और, वे सो भी जाते हैं।

क्यों?

वजह वही थैलामस की पहरेदारी। बच्चे जब गर्भ में होते हैं तो सबसे नज़दीक की ध्वनि, आवाज़ जो वे सुनते हैं लगातार वह अपनी माँ के हृदय, दिल की धड़कन की होती है। डॉक्टर का आला लगाकर देखिए वह ठीकठाक तेज होती है। एक रिदम में होती है।

कई महीने बच्चे का मस्तिष्क उसी रिदम, धुन को सुनते हुए सोते हैं, सोए रहते हैं। वह उन्हें एक कम्फ़र्ट, एक प्रकार की सुरक्षा की गारंटी देता है। जन्म के बाद वे गर्भ के प्रोटेक्टिव लेयर के बाहर होते हैं। उन्हें वो रिदम भी सुनाई नहीं देती है।

इसलिए जब हम उन्हें थपकी देते हैं तो उनका मस्तिष्क समझता है कि वह सुरक्षित है। दिमाग़ की तंतुएँ, नर्व्स रिलैक्स होती हैं। और, बच्चे सो जाते हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमारा मस्तिष्क उस रिदम को भूल जाता है। दिमाग़ हर उस बात को भूल जाता है जो रिपीट नहीं होता है। उसे वह बात काम की नहीं लगती है। रिदम का छलावा कुछ समय चलता है। फिर, नई आदतें आ जाती हैं। नींद फिर भी आती है। लेकिन नई पृष्ठभूमि में।

थैलामस का एक और मस्त काम है। सपने दिखाना। होता यह है कि जब आप सोते हैं तो दिमाग़ मांसपेशियों को शिथिल होने का इंस्ट्रक्शन देता है। लगभग पैरालाइज़ हो जाने का। आप किसी को सोए हुए व्यक्ति को, बेहतर हो किसी बच्चे को उठाकर देखें। कैसा महसूस होता है? लुंज, पुंज। जबकि मांसपेशियों में वज़न और ताक़त उतनी ही है।

इसी दौरान थैलामस एक जटिल प्रक्रिया में आवाज़, चित्र, गंध, ग़ुस्सा, प्रेम आदि को अग्र मस्तिष्क के स्क्रीन पर फेंकता है। यही सपना है जो हम देखते हैं। यह हमारे लिए बेहद ज़रूरी। इसकी कहानी फिर कभी कहुँगा। फिलहाल इतना ही कि सभी, सभी मतलब सभी स्तनधारी और पक्षी सपने देखते हैं।

....

नींद पार्ट-2 । नींद किस चिड़िया का नाम है

नींद पार्ट-1 Sleep, the saviour

नींद किस चिड़िया का नाम है?

 

नींद नियम है, जगते अपवाद है। (Photo: AayushmanBhaarat_Twitter)

14 अप्रैल 2021 का लेख

नींद मेरा पसंदीदा विषय है। सिर्फ़ इसलिए नहीं मुझे सोना बहुत अच्छा लगता है। बल्कि इसलिए कि इसे समझना मुझे बड़ा रोमांचक लगता है। जो लोग मुझे जानते हैं उनमें से कुछ यह भी जानते हैं कि कई साल से मैं नींद को समझने की कोशिश करता रहा हूँ। एक-आध बार लेक्चर देते समय नींद पर मेरी समझ भी मैंने साझा किया था। और, एक बार थोड़ा-बहुत लिखा था। अंग्रेज़ी में। 😊 इस बार हिंदी में कोशिश कर रहा हूँ।

नींद और सोने को लेकर कई तरह की भ्रांतियाँ लोगों के मन में रही हैं। ख़ासतौर पर पेरेंट्स, अभिभावकों के मन में। बच्चों को सोने नहीं देना चाहते। वैसे यह पूरा सच नहीं होगा। असल में वे चाहते हैं कि बच्चे उनकी समझ के मुताबिक़ सोएँ।

उनकी इस ज़िद की जड़ में स्वान निद्रा वाली पाठ है जो उनके बचपन में धुट्टी की तरह उन्हें पिलाई गई थी। नींद पतली होनी चाहिए। कम समय में पूरी होनी चाहिए। और, उठते ही बिल्कुल फ्रेश होना चाहिए।

ये सभी विरोधाभाषी बातें हैं। नींद पतली या हल्की नहीं होनी चाहिए। पूरी नींद हल्कि हो तो हानिकारक है। इतनी कि जानलेवा। नींद महज़ हमारी ज़रूरत नहीं है। नींद जीवन है। जीवन संभालती है।

ऐसे समझिए कि नींद रोज़मर्रा है और जगना आवश्यकतानुसार है। आवश्यकता किसकी? खाना बटोरने की, सुरक्षा निश्चित करने की और वंश बढाने की। जीवन के महत्वपूर्ण काम नींद में होते हैं। याद करिए पिछली बार जब आप बीमार पड़े थे तो डॉक्टरों ने और हितैषियों ने चैन से सोने की सलाह दी थी। नींद वाकई उतनी ज़रूरी है।

क्यों सोते हैं हम?

इसका बिंदुगत कारण शायद अभी नहीं पता। मुझे तो बिल्कुल ही नहीं पता। लेकिन नींद को लेकर अपनी समझ बढ़ाने के चक्कर मे मैंने कुछ शोध-प्रबंध और क़िताबें पढ़ने की कोशिश की। वास्तव में मुझे हैरानी हुई यह जानकर कि स्वैच्छिक वैज्ञानिक से लेकर अमेरिकी सरकार तक नींद को समझने और उसपर रिसर्च करने के लिए करोड़ों डॉलर खर्च करते रहे हैं। इस बात ने मेरे अंदर से नींद में मेरी रुचि को लेकर जो हिचक थी वो दूर कर दी। अगर वैज्ञानिक रिसर्च कर सकते हैं और सरकारें पैसा खर्च कर रही हैं तो इसको लेकर शाई क्यों होना!

हम क्यों सोते हैं, इसको लेकर कई मत हैं। जो बात तय है वह यह कि नींद विकासक्रम, इवोल्यूशन का हिस्सा है। और, धरती पर इसका संबंध सूरज से है। सूर्योदय और सूर्यास्त से है। यह महज़ आँखों से देखने और नहीं दिखाई देने जितना सरल नहीं है। सोना इतना ज़रूरी है कि सभी प्राणवान सोते हैं। सोने का रूप, स्वरूप, विधा अलग-अलग हो सकती है। लेकिन नींद सार्वभौम है।

किस शोध में ऐसा आया था यह तो याद नहीं लेकिन मैथ्यू वाकर, जो कैलिफ़ॉर्निया की बर्कले यूनिवर्सिटी हाँ, जहाँ राहुल गाँधी भाषण दे चुके हैं में पढ़ाते हैं और दुनिया के बड़े स्लीप साइंटिस्ट, नींद वैज्ञानिक हैं, उनका मानना है कि बैक्टीरिया जैसे जीव भी सोते हैं। शायद कोविड-19 वाला सार्स-कोवी-2 कोरानावायरस भी सोता है। इनकी नींद का साइकल भी दूसरे जानवरों और पौधों की नींद की साइकल के जैसा ही सूर्योदय-सूर्यास्त के चक्र से तय होता है।

मैथ्यू वाकर ने कहा है — “We have discovered that the very simplest forms of unicellular organisms that survive for periods exceeding twenty-four hours, such as bacteria, have active and passive phases that correspond to the light-dark cycle of our planet.”

सूर्योदय-सूर्यास्त के इस साइकल में जो हमारा सोने और जगने का साइकल है उसे सर्काडियन रिदम कहते हैं। अंदरुनी घड़ी। यही तय करता है कि हमारा सोने का टाइम क्या है। हमारे सोने की वज़ह भी यही है।

ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति में यह अंदरुनी घड़ी एक समय दिखाती है। भारत में प्रतीकों से समझने की पुरानी परंपरा रही है। जो पढ़ा-समझा है, उसके अनुसार नींद को समझने-समझाने के लिए मेरे ख़्याल से दो पक्षी बड़े उपयुक्त हें उल्लू और भरत, जिसे भारद्वाज पक्षी भी कहते हैं। उल्लू लक्ष्मी से जुड़े होने के अलावा रात में जगने का प्रतीक है। भरत अर्ली राइज़र है।

कुछ लोगों की अंदरुनी घड़ी उल्लू से मिली होती है। भरत पक्षी के मुक़ाबले कुछ घंटे देर से चलती है। कोरोना काल से पहले की भारतीय रेल की गाड़ियों की तरह। उल्लू प्रकृति के लोगों को आप सुबह जगा तो सकते हैं लेकिन वे शुरुआत के कुछ घंटों में काम बड़ी कमज़ोरी के साथ करते हैं। दोपहर के वक़्त यही लोग दक्ष दिखने लगते हैं। लेकिन स्वान निद्रा की हमारी सीख इन्हें सुधारने में हमें लगाकर रखती है।

दुनिया में क़रीब 40 प्रतिशत लोग उल्लू प्रकृति के हैं। लेकिन, आम तौर पर इनकी जगह उँचे ओहदों पर वे पहुँचते हैं जो भरत प्रकृति के होते हैं। राजनेता हों या किसी कंपनी के सीईओ। सो सोया सो खोया, जो जागा सो पाया, ये मुहावरा वैज्ञानिक नज़र में ग़लत है, अप्राकृतिक है लेकिन पाँच में से हर दो व्यक्ति के ख़िलाफ़ बिना जाने हुए पूर्वग्रह के प्रयोग में लाया जाता है। अगली बार सोचिएगा। घर में और दफ़्तर में।

5 numbers linked to ideal heart health