मंदी की समझ और मंदी की मार

4.9.19 का लेख


A woman is carrying bricks at a construction site. Many like her have lost their employment in the wake of policy initiatives such as demonetisation and GST rollout. (Photo source: Twitter)

गुणी लोग कहते हैं कि हम उत्तर आधुनिक युग में जी रहे हैं। यह सत्य के पार की दुनिया है। यानी, सत्य क्या है, इस पर बहस की गुंजाइश नहीं है क्योंकि सत्य अब न तो शोध का विषय है और न ही साधना का। ये बात मुझे इसलिए याद आ गई कि आजकल दो क़िस्म की बहस चारों ओर चल रही है। या, यूँ कहें कि दो में कम-से-कम एक बहस हर तरफ़ है।

कश्मीर और अर्थव्यवस्था। अच्छा, दोनों बहसों में कई समानताएँ भी हैं। ज़्यादातर बहस करने वाले दोनों में से किसी भी मुद्दों से जुड़े मूलभूत सत्य या तो जानते नहीं हैं या सत्य को मानते नहीं हैं। उनका कहना है कि जो उन्होंने कहा वही सत्य है। दूसरा पक्ष एजेंडावादी है, राष्ट्रीयता का एजेंडा या अलग्योझा का एजेंडा।

कश्मीर पर बड़े-बड़े बाजा बजा रहे हैं, देश और विदेश में भी तो हम मंदी की बात करते हैं। लेकिन, उसके पहले एक छोटा-सा वाक्या झेलना होगा आपको।

मैं दिल्ली के जिस इलाक़े में रहता हूँ वो गाँव, शहर और महानगर का एक अनूठा मिश्रण है। यहाँ रहते आपको यूपी, बिहार, बंगाल, हरियाणा के गाँवों में क्या चल रहा है, ऑलमोस्ट रियल टाइम मालूम पड़ जाता है। शहरी और महानगरी ख़बरें और जुगाड़ बड़ी तेज़ी से चलता ही है। ऐसे में ही, बीते रविवार यानी संडे को मैं उसी नाई की दुकान पर गया जहाँ 10 साल से जाता रहा हूँ।

उसने मंदी की समझ दिखाई। वो अभी-अभी गाँव से लौटा था। बिहार के मिथिला अंचल से, जहाँ से दिल्ली में सबसे अधिक मजदूरों की आपूर्ति होती है। दिल्ली-नोएडा-फ़रीदाबाद में सड़क किनारे खड़े मजदूरों, रिक्शा चलाने वालों से आप बेझिझक मैथिली बोल सकते हैं। आधे से अधिक इसे समझकर जवाब देते हैं। कुछ उसी ज़बान में, कुछ संकोच दिखा देते हैं।

मेरे नाई ने बताया, "गाँवों में 80-90 के दशक का माहौल बन रहा है। छिनैती (स्नैचिंग एंड लूट) ख़ूब हो रही है। अगर आप सुनसान रास्ते पर अकेले चले जा रहे हैं तो शिकार बनना लगभग तय है। कुछ नहीं तो पर्स और मोबाइल तो जाएगा ही। ऐसा करने वाले कोई गुंडे नहीं हैं बल्कि बड़ी संख्या उनकी है जो दिल्ली-एनसीआर, मुंबई-महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा वग़ैरह में नौकरी करते थे। 

"फ़ैक्ट्री बंद हो गई। थोड़े टाइम इंतज़ार किया और फिर बोरिया-बिस्तर बाँध ली। समस्या यह है कि काम घर पर भी हो तब तो मिले। लेकिन जीने के लिए पैसे तो चाहिए। अब जीवन वैसा रहा नहीं कि सिर्फ़ रोटी-चावल-दाल से काम चल जाता है। मोबाइल ज़रूरी है। आराम भी ज़रूरी है। दूसरों से बराबरी बराबर होनी चाहिए। तो, ये सब जो बेरोजगार हुए हैं वे छिनैती कर रहे हैं।

"और, सर छिनैती करने वाले भी कैसे हैं? बस 19-20 साल के लड़के। एक की बात बताऊँ तो मैंने नोटिस किया कि रोज़ रात को 11-12 बजे के आसपास वो निकल जाता था और क़रीब 3-4 बजे तक बाहर रहता था। 

"मैंने एक दिन पूछ लिया कि रात में कहाँ जाते हो। पहले तो उसने कहा कि दोस्त के घर। मैंने पूछा कौन-सा दोस्त है जो रात को ही मिलता है और रोज़ तुम्हें ही जाना पड़ता है, वो कभी नहीं आता। 

"बच्चा ही तो है, दबाव डाला तो बोल पड़ा कि चाचा नौकरी है नहीं, पैसे चाहिए तो छीन-छान करते हैं। अब आसानी से पैसा मिल जाता है और काम भी चलता है। मैं तो हैरान रह गया। लेकिन उसने कहा कि नौकरी है नहीं, और तब तक यही सहारा है। अब वो दिन को सोता है, दोपहर होने के पहले तक। मुझे तो इतना मालूम नहीं, आपलोग पढ़े-लिखे हैं, बताइए कि इसका उपाय क्या है।"

मेरे पास जवाब नहीं था। न ही मैंने देने की कोशिश की।

अब मंदी की बात आगे बढ़ाते हैं। लेकिन उससे पहले मंदी को परिभाषित कर लेते हैं। मेरी निजी नहीं बल्कि जिसे ज़्यादातर नहीं तो अधिकांश अर्थशास्त्री मानते हैं, ख़ासकर यूरोप और अमेरिका में। मॉडल भी उनका ही है तो उनकी परिभाषा से किसी को बहुत ऐतराज़ नहीं होगी, ऐसा मेरा मानना है।

अर्थव्यवस्था की उस अवस्था को मंदी कहते हैं जहाँ कम-से-कम दो क्रमिक तिमाही में जीडीडी सिकुड़ गई हो। यानी, जीडीपी ग्रोथ रेट नेगेटिव माने माइनस में चली गई हो। ऐसे में बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थान फ़ेल हो जाते हैं, ढह जाते हैं। जैसा कि अमेरिका में 2008-09 में हुआ। क़िताबों में जैसा 1929-30 के बारे में पढ़ाया जाता है।

भारत में फ़िलवक़्त ऐसा नहीं हुआ है। इसकी आशंका भी नहीं दिख रही है, इस समय। सबूत के तौर पर आँकड़ों का एक जाल आपके सामने रखता हूँ। आँकड़ें उलझाते हैं, लेकिन कई बार नज़र गड़ा लेना सही रहता है।

तिमाही जीडीपी -- विकास दर

अप्रैल-जून 2014 -- 6.7

जून-सितंबर 2014 -- 8.4

अक्टूबर-दिसंबर 2014 -- 6.6

जनवरी-मार्च 2015 -- 7.5

अप्रैल-जून 2015 -- 7.5

जून-सितंबर 2015 -- 7.6

अक्टूबर-दिसंबर 2015 -- 7.2

इसी वक़्त भारत ने विकास दर में चीन को पछाड़ा था, विकास दर में, जीडीपी में नहीं, सिर्फ़ ग्रोथ रेट में।

जनवरी-मार्च 2016 -- 9.2 (तकरीबन)

अप्रैल-जून 2016 -- 7.9

जून-सितंबर 2016 -- 7.5

अक्टूबर-दिसंबर 2016 -- 7.0

इसी दौरान नोटबंदी लागू की गई। क्या हुआ, कैसे हुआ लोगों को आमतौर पर पता ही है, इसलिए इसको लेकर आपका समय ज़ाया नहीं करूँगा। आगे बढ़ते हैं।

जनवरी-मार्च 2017 -- 6.1

ये आँकड़ा साल भर पहले की इसी तिमाही के दौरान वाले आँकड़े से तीन प्रतिशत नीचे था। अगली तिमाही में ये और नीचे चला गया। उस वक़्त भी हा-हाकार मच गया था। लगातार छः तिमाही में विकास दर नीचे गिरी थी। वो भी मंदी या रिसेशन नहीं था।

अप्रैल-जून 2017 -- 5.7

एक साल पहले की तिमाही के मुक़ाबले दो प्रतिशत कम। और, इसी समय लागू हुआ दूसरा आर्थिक भूचाल लाने वाला सुधार -- जीएसटी। लेकिन गनीमत रही कि अगली तिमाही में जीडीपी विकास दर में सुधार हो गया। छः तिमाही बाद जीडीपी ग्रोथ रेट ऊपर की ओर गई -- 5.7 से 6.3 प्रतिशत। बढ़ते, बढ़ते जीडीपी ग्रोथ रेट 8.2 प्रतिशत पर पहुँची

जून-सितंबर 2017 -- 6.3

अक्टूबर-दिसंबर 2017 -- 7.2

जनवरी-मार्च 2018 -- 7.3

अप्रैल-जून 2018 -- 8.2

इसके बाद से अब तक जीडीपी विकास दर में गिरावट ही होती चली आ रही है।

जुलाई-सितंबर 2018 -- 7.1

अक्टूबर-दिसंबर 2018 -- 6.6

जनवरी-मार्च 2019 -- 5.8

अप्रैल-जून 2019 -- 5.0

इससे कम विकास दर मनमोहन सिंह सरकार के आख़िरी दो साल में ही देखने को मिले थे। यानी, विकास दर के मामले में अभी की हालत 2014 से पहले से बेहतर है। मेरा मक़सद नरेंद्र मोदी सरकार को पिछली सरकार से बेहतर ठहराना नहीं है।

तो, भारत में हुआ क्या है कि इतना शोर मचा हुआ है? शोर इसलिए है कि भारत में काम करने वाले हर साल तकरीबन 1 करोड़ 20 लाख नए कामगार काम की चाहत लिए मार्केट में पहुँच रहे हैं। पाँच प्रतिशत की विकास दर में उतनी नौकरियाँ नहीं पैदा हो सकती है जितनी की ज़रूरत है।

दूसरी बात है ये है कि बीते पाँच साल में सरकार ने टेक्नोलॉजी के ज़रिए सरकार और बिज़नेस चलाने पर ज़ोर दिया है। नोटबंदी और जीएसटी भी एक स्तर पर टेक्नोलॉजी को बढ़ावा दे रहे हैं। टेक्नोलॉजी बढ़ने का एक मतलब ये भी होता है कि काम मशीन करेगी या कंप्यूटर करेगा। पहले से ज़्यादा। यानी, मानव-श्रम की ज़रूरत कम होगी। यानी, नौकरियाँ कम होंगी। लोग हटाए जाएँगे।

ये सब तब हुआ जब नोटबंदी, जीएसटी, बैंकिंग-नॉन-बैंकिग संकट, कालाबज़ारी, कालाधन आदि पर क़ानूनी सख़्ती, इनकम टैक्स का कड़ा होता पहरा इत्यादि इत्यादि हो हुआ। नोटबंदी और जीएसटी ने असंगठित और कैश-आधारित व्यवसाय को लगभग बर्बाद कर दिया। 

ये सब धंधे सरकार की नज़र पर थे क्योंकि यहाँ टैक्स चोरी बहुत होता था। लेकिन, ये धंधे, फ़ैक्ट्रियाँ बड़ी तादाद में नौकरियाँ दे रही थी। ये ठप पड़ गई और नौकरियाँ स्वाहा हो गई। जिनकी नौकरियाँ गई उनमें मेरे नाई के गाँव का उसका भतीजा भी रहा होगा।

फ़ादर्स डे का फ़साना

 2019 का लेख


जून की 16 तारीख़ को इस बार फ़ादर्स डे था। ये बड़ा दुविधाप्रद विषय है मेरे लिए। कई सोच गडमड हो जाते हैं ऐसे किसी दिन के कॉन्सेप्ट में। एक ही दिन क्यों? बाक़ी दिन क्या उनका सम्मान नहीं होना चाहिए? बाक़ी दिन क्या उनका अवलोकन नहीं किया जाना चाहिए? बाक़ी दिन क्या उनसे अपनी माँगे नहीं मनवानी चाहिए? बाक़ी दिन क्या उन्हें कष्ट में रखने का हक़ है? या, हम ये मान चुके हैं कि बाक़ी दिन वे कष्ट में ही रहते हैं इसलिए उनके लिए एक दिन फ़ारिग़ कर उन्हें ख़ुश करना चाहिए?

वैसे मेरे डैडी ये पोस्ट नहीं पढ़ रहे होंगे। उन्हें शायद फ़ादर्स डे भी नहीं मालूम हो। वे फ़ेसबुक क़ौम से नहीं हैं।

दुनिया के सारे ही बच्चे बिना अपनी मर्ज़ी के दुनिया में आते हैं। लेकिन ज़्यादातर पुरुष अपनी मर्ज़ी से फ़ादर बनते हैं। वे तय करके फ़ादर बनते हैं। उस दिन के बाद से हर दिन उनका फ़ादर्स डे है।

डिक्शनरी के अर्थ के हिसाब से देखा जाय तो फ़ादर का मतलब उस शख़्स से है जिसने किसी नयी चीज़, लीक की शुरुआत की हो। हमारा जीवन एक नयी शुरुआत है। हर जीवन एक नयी शुरुआत, नयी उम्मीद है कि कल आज से बेहतर होगा, बनाया जायेगा। हर फ़ादर के अंदर एक बेहतर भविष्य की कल्पना होती है। चाहत होती है। अपने लिए नहीं। वो मान चुका होता है मन ही मन कि वो अतीत का हिस्सा और उसी का प्रतिनिधि है। वो तो उस नए जीवन के बेहतर भविष्य के लिए उसका सर्जन करता है। किसी को अगर पक्का यक़ीन हो कि भविष्य बेहतर नहीं, कमतर होने वाला है तो कभी अपने बच्चे को जन्म नहीं देगा/लेने नहीं देगा। पिता बच्चे को नर्क में नहीं झोंक सकता। बेहतर भविष्य ही उसका संबल है, पिता बनने की।

तो आज जब आप अपने जनक को जब हैप्पी फ़ादर्स डे बोले, कहें, लिखें, विश करें तो ज़रा सोचें कि क्या आपने उनकी चाहत पूरी की है। कहीं उनकी उम्मीद को नाउम्मीदी में तो नहीं तब्दील कर दिया है?

इसलिए भी सोचिए कि हो सकता है कि आप अपने पिता के साथ रहते हों और उनके भीतर उस भविष्य की कल्पना पल-पल टूट रही होगी।

इसलिए भी सोचिए कि आप अपने पिता से दूर रहते हों/हो गए हों और उस भविष्य की कल्पना को भूल गए हों। और, आपकी भूल की वज़ह से कोई बूढ़ा या बुढ़ापे की ओर बढ़ता हुआ एक व्यक्ति दुखी हो रहा हो मन ही मन।

इसलिए भी सोचिए अगर किसी के पिता उनसे दूर हो गए हों/ एक दूसरी दुनिया में हों, और आपको उनका न रहना सालता हो क्योंकि आप अब बस एक पिता हैं, किसी पिता के बेटे नहीं। उस बेहतर भविष्य की कल्पना के तार टूट रहे होंगे।

कल और आज के आईने में तरक़्क़ी



पहले के पढ़े-लिखे लोगों का जीवन आसान था। इसमें अब कोई दो राय नहीं है। उनके जीवन का सबसे बड़ा, ज़्यादातर के लिए एकमात्र, उद्देश्य होता था एक नौकरी पा लेना। उसके बाद नौकरी ही जीवन। शादी अपरिहार्य। हसरत के नाम पर बच्चे और उनकी शिक्षा, नौकरी और शादी। बस इतना सा ख़्वाब होता था।

पढाई, लिखाई, समाज की चौकीदारी, नेताओं का विश्लेषण, एक्टिवोज़म, लेखन, कविताई वग़ैरह के लिए एक अलग जुझारू समुदाय होता था।

आज वक़्त बदल गया है। अब टीवी और एफ़एम के अतिरिक्त ख़रीदा हुआ फ़्री डेटा, फ़ेसबुक और ट्विटर, टिकटॉक, हेलो जैसे अगणित सोशल मीडिया के पटल हैं। इनसे दूर रहना ग़ुनाह है। और, साथ रहना चुनौती। हर किसी को स्वीकार करना है।

टीवी चैनलों के एंकर की तरह हर किसी को सर्वज्ञ रहना है, नहीं तो दूसरा जीत जायेगा। समानता के अधिकार के प्रति जागरूकता में हमसे आगे कोई निकल जाए तो समाजवाद हार जायेगा। बुद्ध, गाँधी और मार्क्स पैदल हो जाएंगे। हम उनके रक्षक हैं।

क्रिकेट, टेनिस, फुटबॉल, एथलेटिक्स, स्पेस साइंस, सोशियोलॉजी, साइकोलॉजी, क्लाइमेट चेंज, बाढ़, सूखा, अकाल, किसान, पेप्सी, टाटा, संविधान, कोर्ट, घर, कंक्रीट सबपर एक समान वरदहस्त होना है।

आज हमें लेखक, कवि, विचारक और विशारद सब एक साथ इकट्ठे बनने की चुनौती का अकेले सामना करना है। हम पर लेखक बनने का उतना ही दबाव है जितना कवि बनने का या जितना बजट समझने, समझाने का या एक्टिविस्ट बनने का।

बेटा, बेटी, भाई, बहन, पिता वग़ैरह बनने की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी आउटसोर्स किये जा रहे हैं। मजबूरी है। एक ही जीवन है। इसी में दुनिया भी देखनी है।

पुराने साथी, नए सहयोगी, कल का छोकरा सबके सब तुर्की, लंदन, न्यूजीलैंड, फ़िनलैंड घूमकर आ गए। अमेरिका, बैंकॉक, मलेशिया आदि आदि में गिने जाने लगे हैं। गोवा, शिमला, नैनीताल, सिक्किम तो नवदलित चेतना वालों के लिए है। और, धूमने इसलिए नहीं जाना है कि हमारा मन है बल्कि इसलिए कि फेसबुक सरीखे पटलों पर लोग धुआँधार पोस्ट ठेल रहे हैं। समाजवाद हार जायेगा अगर हम न जा सके। फिर सरकार को कोसना है। सिस्टम को गरियाना है। कमियाँ गूगल करनी है और चस्पा देना है। कुछ नया करना है। पुराना तो सब हो चुका है।

तनाव है, चार से छः इंच के एक छोटे से कंप्यूटर में/पर/द्वारा/से। पहले के पढ़े लिखे लोगों का जीवन आसान था। कम लिखने पढ़ने वाले उनको अपने से बेहतर समझ उनकी राय पर अमल कर जीवन गुजार देते थे। उन्हें समाजवाद का ज्ञान नहीं था। उनपर पूँजीवाद का कब्ज़ा था तब भी लेकिन गिरफ़्त का अंदाज़ा नहीं था।

कर्म उँगलियों से ज़्यादा पैरों की ताक़त और हाथ के मशल्स से किया जाता था। नींद ज़्यादा आती थी। सुकून ज़्यादा था। माने, पहले के पढ़े लिखे लोगों का जीवन आसान था।

5 numbers linked to ideal heart health