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सेहतमंद सलाह की समस्या


भरोसा बड़े कमाल की चीज़ है। इसी के भरोसे कुछ लोग मुझसे सेहत संबंधी सलाह लेते हैं जबकि उन्हें पता है कि मैं क्वालिफ़ाइड नहीं हूँ। इसी मामले में कुछ लोग मुझे पुरातनपंथी समझते हैं। वे कहते हैं कि मेरे उपाय गुज़रे ज़माने के-से लगते हैं। कुछ और लोग कनफ़्यूज़न की शिकायत करते हैं। ये कहते हैं कि मैं बात तो साइंस की करता हूँ लेकिन उपाय पुराने बताता हूँ। उनका कहना होता है कि साइंस की बात से तो लगता है कि मैं ऐलोपैथी से कोई उपाय बताऊँगा, लेकिन मैं आयुर्वेद-टाइप सलाह दे बैठता हूँ। लेकिन सच यह है कि मैं साइंस समझने की कोशिश करता हूँ। इसे रोज़मर्रा और शरीर से जोड़कर समझने की कोशिश करता हूँ। न तो मुझे ऐलोपैथी की समझ है और न ही आयुर्वेद की। तो, मैं सलाह दोनों में से किसी की भी नहीं देता, न ही दे सकता हूँ। फिर भी, मैं इस कनफ़्यूज़न को समझता हूँ। अब समझाने की कोशिश करता हूँ।

यहाँ तक थोड़ा पर्सनल था। कारण कि इसी वजह से मैंने लिखकर कहने की बात सोची।

आमतौर पर साइंस और ऐलोपैथी को सेहत की दुनिया में एक-दूसरे का पूरक समझा जाता है। ऐसा है नहीं। असल में ऐलोपैथी अपने मूल मतलब में तो वैकल्पिक रोग उपचार पद्धति का नाम है। ऐसा इसलिए कि जब यह विकसित हो रही थी तो पश्चिमी दुनिया में होमियोपैथी मुख्यधारा की रोग उपचार पद्धति थी। जर्मनी से निकलने वाली धारा मजबूत थी।

लेकिन, क़रीब 100-110 साल पहले अमेरिका में एक पैनल बना जिसने तय किया कि ऐलोपैथी ही मुख्य रोग उपचार पद्धति बनेगी। इसने यह भी तय किया कि वे मेडिकल स्कूल-कॉलेज़ जहाँ ऐलोपैथी की पढ़ाई नहीं होती है या ग़ैर-ऐलोपैथी पढ़ाई होती है, उन्हें बंद कर दिया जाए या उनकी फ़ंडिंग बाधित की जाए। यह उस पैनल की राय थी। उनका मानना था कि ऐलोपैथी ही उनके लिए और भविष्य के लिए भी उचित पद्धति है।

आमतौर पर जैसा भाषा और धर्म के साथ होता है वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। भाषा के बारे में कहते हैं कि वह एक बोली है जिसे एक विजयी सेना मिल गई। धर्म के बारे में भी यही कहते हैं कि जब एक विचार और विचारक को मिशनरियों-लड़ाकों की फ़ौज मिल जाती है तो धर्म की स्थापना और उसका विस्तार होता है। ऐलोपैथी के साथ यही हुआ। उसे धन और धन-प्रायोजित साइंस का सहारा मिला।

साइंस का वास्तव में ऐलोपैथी से कोई कनेक्शन नहीं है। यह होमियोपैथी, यूनानी पद्धति और आयुर्वेद के लिए भी उतना ही सुलभ और अपना है। ऐलोपैथी ने, लेकिन, साइंस को उपनिवेश बना लिया। ऐलोपैथी को साइंस के विकास से जो फ़ायदा हुआ वही फ़ायदा होमियोपैथी या आयुर्वेद को भी हो सकता था। लेकिन कुछ-कुछ सिस्टम ने और कुछ इन्होंने ख़ुद ही साइंस को अपने से अलग कर लिया। जबकि, ये सभी, ख़ासतौर पर आयुर्वेद, ऐलोपैथी से काफ़ी बेहतर नींव पर थे।

मसलन, ऐलोपैथी का तंत्र रोग के उपचार में कृत्रिम केमिकल दवाई पर आधारित है। सर्जरी एक ज़बरदस्त बढ़त है। लेकिन इसमें फ़ूड का कोई ख़ास रोल नहीं है। मेरे ख़्याल से किसी भी मेडिकल कॉलेज़ में एमबीबीएस के स्टूडेंट्स को न्यूट्रीशन अलग से नहीं पढ़ाया जाता।

आयुर्वेद कॉलेज़ों में भोजन-पोषण पढ़ाया जाता है या नहीं, यह भी मुझे मालूम नहीं लेकिन आयुर्वेद में फ़ूड रोग-उपचार का अहम हिस्सा है। शायद होमियोपैथी में भी। और, अब दुनियाभर में ऐलोपैथी के रिसर्चर्स इलाज़ में फ़ूड को शामिल करने की सलाह देते हैं। यहाँ तक कि मोटापा घटाने की नई क़िताबों में भी रिसर्चर्स इस बात पर ज़ोर देते हैं कि आपको ख़ुद को भूखा नहीं रखना है। बस, जिन सेल्स में फ़ैट स्टोर होता है, उन्हें कैसे अनलॉक करना है, यह समझाते हैं। और, यह सब साइंस में हुए रिसर्च पर आधारित है।

अगर आयुर्वेद, होमियोपैथी या यूनानी पद्धतियों को साइंस का ऐक्सेस रहा होता तो ये पद्धतियाँ बराबर खड़ी होती। कुछेक बीमारियों को छोड़कर शायद बेहतर भी होती। आयुर्वेद तो ख़ासकर क्योंकि जिस प्लांट-बेस्ड लाइफ़स्टाइल का नया ज़माना आ रहा है, वह तो वास्तव में पुरातन ही है। लेकिन, हमारे ऊपर इतिहास का एक बोझ है जो हमें कई चीज़ों को साफ-सुथरे ढंग से देखने नहीं देता।

हालत तो यहाँ तक है कि आयुर्वेद और होमियोपैथी के डॉक्टर साइंस द्वारा विकसित डॉयग्नोस्टिक मेथड्स का इस्तेमाल भी बीमारियों की पड़ताल में करने से हिचकिचाते हैं। अब पैर टूट गया तो बिना एक्स-रे इलाज क्यों कराया जाए? छाती में इनफ़ेक्सन है तो एक्स-रे या स्कैन पर क्यों ऐलोपैथी का एकाधिकार समझा जाए? ख़ून की तमाम तरह की जाँच ऐलोपैथी के डॉक्टर ही आमतौर पर लिखते हैं।

यह कूपमंडूकता है कि लोग अमूमन यूनानी पद्धति को इस्लामी पद्धति समझते हैं। यूनानी मेडिकल कॉलेज़ों में इसीलिए मुसलमान छात्र अधिक हैं। उन्हें भी लगता है कि यूनानी उनका है, आयुर्वेद और होमियोपैथी हिंदुओं का है और ऐलोपैथी विधर्मी बना सकता है। गैर-मुसलमान भी सोचते हैं कि यूनानी मुग़लिया इलाज़ पद्धति है।

सच यह है कि यूनानी पद्धति इस्लामी दुनिया के लिए उतना ही फ़ॉरन है जितना हिंदुस्तानी जगत के लिए। इसकी बुनियाद ग्रीस में पड़ी। वहाँ से भारत आई। पश्चिम से, जिधर से दिल्ली के सुल्तान और मुग़ल आए। वे यूनानी से पहले से परिचित थे। आयुर्वेद उन्हें अनजाना, फॉरन लगा। यूनानी नाम भी भारतीय है।

अँग्रेज़ी हुक़ूमत तक राजा-रजवाड़ों की वजह से आयुर्वेद भारत में पिछड़ गया। वैसे ही जैसे ग्रीस में यूनानी। वहाँ ग्रीक लोगों का भरोसा यूनानी पद्धति पर कम होता गया। इसे फ़ंडिंग की समस्या हुए। इसकी वजह से साइंस से कनेक्शन टूटा। उसकी गति बाधित हुई। यही होमियोपैथी के साथ हुआ। मुश्किल से 100 साल पहले तक यह मुख्य उपचार पद्धति थी लेकिन अमेरिका-यूके में हुए फ़ैसले की वजह से ऐलोपैथी को सपोर्ट मिला। साइंस की उपलब्धियाँ इसके हिस्से आई।

होमियोपैथी को कई लोग दवाई तक मानने से इनकार करते हैं। कारण यह है कि दवाई की परिभाषा सिर्फ़ ऐलोपैथी तक सीमित हो गई। होमियोपैथी ने भी ख़ुद में सुधार नहीं किया। ऐलोपैथी साइंस के साथ-साथ बढ़ती गई। वह सिर्फ़ पेनिसीलीन पर निर्भर नहीं रही। होमियोपैथी आज तक सिर्फ़ उस जर्मन की क़िताब को ही पढ़ती रही।

भारत में आयुर्वेद का हाल यही रहा। साइंस-आधारित पद्धति ने साइंस की प्रगति से ख़ुद को अलग ही रखा। ऐलोपैथी लाने वाले अँग्रेज़ों ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। अँग्रेज़ 75 साल पहले चले गए। आयुर्वेद अभी तक ख़ुद को साइंस की ख़ूबियों को अपनाने से रोकता रहा है।

आयुर्वेद का फलक ऐलोपैथी से बड़ा है। इसमें फ़ूड, शारीरिक गतिविधियाँ, साइकोलॉजी, पर्यावरण आदि समेकित रूप में देखे जाते हैं। रोग उपचार के लिए यह एक पोटेंशियल टोटैलिटी देता है। यह सिर्फ़ उपचार नहीं रोग निवारण तक की पद्धति हो सकता है। आर्युवेद का साइंस से मिलन का समय आ रहा है। एक बार फिर।

मैं तो सिर्फ़ साइंस को फ़ूड से जोड़कर सेहत की सलाह देता हूँ। जीवन से सेहत को जोड़ने का काम आयुर्वेद है। इसे आर्युवेद में ट्रेंड डॉक्टर आगे बढ़ा सकते हैं।

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