(Ducks in Adhwara river, Aahil, Darbhanga. (Photo: Prabhash K Dutta) |
धर्म में मेरी रुचि है। लेकिन मैं शायद धार्मिक नहीं हूँ। यह संबंध जैसा किसी सरकारी दफ़्तर में जाने पर जो आभास होता है उसके विपरीतमूलक है। वहाँ कई कार्मिक होते हैं लेकिन उनमें से कई की कर्म में रुचि नहीं होती। वैसे ही मेरी धर्म में रुचि है लेकिन मैं अमूमन धार्मिक नहीं होता हूँ। इसलिए शांतिपाठ पर लिखना मेरी अधर्मिता है जो धर्म में रुचि की हठधर्मिता से उपजी है।
शांतिपाठ पहले भी कई बार पढ़ा था। इस शनिवार एक बार फिर पढ़ा। कई बार ख़ाली समय काम आ जाता है, अगर मोबाइल फ़ोन छोड़ पाने का जतन कर लिया है तो। पढ़ते ही पटना कॉलेज के दिन और एक-आध सोच याद आ गई। पहले शांतिपाठ के शब्द, जैसा कि मूल उपनिषदों में से एक –- बृहद् अरण्यक (अर्थ, विशाल वनों से संबंधित) –- से मिलता है।
ऊँ पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते। पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् एव अवशिष्यते।।
ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
मुझे
संस्कृत नहीं आती। इसका शाब्दिक अर्थ आमतौर पर मंत्र को समझाने वाली क़िताबे नहीं
बताती। वे इनकी व्याख्या करती हैं। हम व्याख्या ही समझते हैं। इसमें कई बार मूल
शब्दार्थ छूट जाता है क्योंकि इसे समझाने वाला अपनी समझ ही देने लगता है।
मसलन, हम अक्सर देखते हैं कि लोग महात्मा गाँधी के बारे में (व्याख्या) ख़ूब पढ़ते
हैं, गाँधी को नहीं।
हालाँकि
गाँधी नें धुआँधार लिखा है। तब की राजनीति पर लिखा है तो मूँगफली के उपयोग, लाभ पर
भी लिखा है। गाँधी की व्याख्या पढ़ने वालों को मैंने अक्सर गाँधी के बारे में ग़लत
राय बनाते ही पाया है। जिन्होंने गाँधी को पढ़ा है, वे बेहतर समझते हैं। यही बात
गाँधी के क़ातिल नाथूराम गोडसे के बारे में भी है। गोडसे का बयान क़िताब की शक्ल
में मौजूद है लेकिन लोग किसी की व्याख्या पढ़कर अंदाज़ा लगाते हैं। इसीलिए मेरा
मानना है कि भूख की शमन के बाद समझ की स्वतंत्रता एक मनुष्य का पहला अधिकार है, और
यही पहला कर्तव्य भी है।
इसी
संदर्भ में शांतिपाठ का शब्दार्थ जानना पहली ज़रूरत है। व्याख्या तो फिर भी कहीं
भी मिल सकती है। अपने भीतर भी। चूँकि मुझे संस्कृत नहीं आती, मैंने गीताप्रेस के
एक संस्करण की सहायता ली जो 1960 के दशक में छपी। हम वैसे भी प्राचीनता को
प्रमाणिकता के समकक्ष समझते हैं। अब शांतिपाठ का शब्दार्थ।
ऊँ पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते। पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् एव अवशिष्यते।।
ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
ऊँ
को कॉस्मिक साउंड, ब्रह्म ध्वनि मानते हैं। कई लोग इसे ईश्वर का आह्वान भी मानते
हैं। मूलतः यह एक अपरिभाषित सार्वभौमिक आध्यात्मिक आह्वानिक ध्वनि है। यह एक
समर्पण भी है। इस शांतिपाठ में मुझे ऐसा ही लगा।
अर्थ
–- वह सब प्रकार से पूर्ण है, यह भी पूर्ण है क्योंकि उस पूर्ण से ही यह पूर्ण
उत्पन्न हुआ है, पूर्ण के पूर्ण को निकाल लेने पर पूर्ण ही बचता है।
यह
है शाब्दिक अर्थ।
वह
इश्वर हो सकता है। परब्रह्म भी कहते है। यह संसार के लिए हो सकता है। हमारे, आपके
लिए हो सकता है। लेकिन तर्क यह है कि यह वह से निकला है। वह पूर्ण है, इसलिए यह भी
पूर्ण है। इनके आपस का संबंध ऐसा है कि उस पूर्ण (वह) से इस पूर्ण (यह) को निकाल
लेने पर भी दोनों पूर्ण ही रहते हैं।
यानी,
वह किसी लोटे का पानी है कि एक गिलास निकाल लिया तो कम दिखने लगा, बल्कि समुद्र है
जहाँ से एक बाल्टी पानी निकाल लेने पर भी दोनों का अपना पूर्ण अस्तित्व है।
हालाँकि, लोटे और समुद्र का बिम्ब शांतिपाठ को समझने का सही चित्र नहीं है। वास्तव
में यह कुछ ऐसा है कि जैसे यह यूनिवर्स हरेक ऐटम से बना है और दोनों ही लगातार
पूर्ण हैं। ऐटम दूसरे ऐटम से मिलकर भी पूर्ण है, और यूनिवर्स का हिस्सा है। नष्ट
होकर भी किसी न किसी रूप में पूर्ण है। एक ऐटम होगा ही। क्वार्क के रूप में भी
अस्तित्व पूर्ण है और यूनिवर्स का हिस्सा है। दोनों पूर्ण हैं।
शांतिपाठ
यही कहता है। मैं, आप, और वे सभी वह के साथ पूर्ण हैं। तीन विधियों से शांति बनी
रहे। इस आह्वान के साथ शांतिपाठ पूरा हो जाता है।
साहित्यक
रूप से शांतिपाठ बृहद् अरण्यक उपनिषद् के पाँचवे अध्याय के प्रथम (शतपथ) ब्राह्मण (वेद् की व्याख्या
करने वाले ग्रंथ) में है। शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद से संबद्ध है। बाद के
ग्रंथों में शांतिपाठ की कई और शब्दावली मिलती है। अलग-अलग पूजा के लिए अलग-अलग
शांतिपाठ। लेकिन प्राचीनता ही प्रामाणिकता को आधार बनाकर बृहद् अरण्यक के शांतिपाठ
को ही मौलिक मान लेते हैं।
सभी
काम से पहले शांतिपाठ की प्रस्तावना की गई है। शायद भारतीय मनीषी ने एक प्रीएंबल
दिया था देश की जनता को जिसके ज़रिए उन्हें इस बात का आभास रहे कि वे एकात्म का
हिस्सा हैं। ऐसा कुछ न करें जिससे किसी को क्लेष हो और शांति भंग हो।
मैं
अगली बार शांतिपाठ सुनूँगा या पढ़ूँगा तो इसका ध्यान रखूँगा। चाहें तो आप भी इस अर्थ में शांतिपाठ को अपना सकते हैं बजाए यह मानने के कि शांतिपाठ करने, कराने से
आपके घर में कोई दूसरा (ईश्वर ही क्यों न हों) शांति ला सकता है या ला सकती है।